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विषयों की प्ररूपणायें की हैं। जैन-जैनेतर ऐतिहासिक, धार्मिकादि अनेक शास्त्र प्रमाण, प्राचीन प्रतिमाके लेख, ताम्रपत्रीय लेखादि अन्य सामग्रीसे प्राचीनता और जैन परंपरानुसार पूर्वापर तीर्थकरों के चरणकरणानुयोग एवं कथानुयोगकी प्ररूपणामें भिन्नता, फिरभी समान सैद्धान्तिक स्वरूपसे नूतन ग्रन्थों द्वारा परंपरासे शाश्वत धर्मके धर्मग्रन्थों की अर्वाचीनता प्रदर्शित की गई है।
भ. महावीरकी आतिशायी वाणीकी विशिष्टतायें, देशनामें अर्धमागधीका प्रयोग-अन्य कई रचनाओंमें अन्य भाषा प्रयोग-जैन ग्रन्थों की भाषा प्राकृतके तीन प्रकार और उन सब पर किये गए दयानंदजीके आक्षेपोंका प्रतिवाद और प्रमाण-युक्तियुक्त प्रमाणसे उसकी स्वतंत्रता और प्रमाणिकता प्रमाणित की है। तदनन्तर वैदिक हिंसा और जैनी अहिंसाके वैधय॑के कारण वेदोमें जैनधर्मके उल्लेखका अभाव दर्शाते हुए हिंदुओंकी, क्रोस पर लटकती ईसा मसीहकी, सिया मुस्लिमों के ताबुतडुलडुल घोडा-इमामोंकी लाशकी प्रति-कृतियाँ, हाजियोंका पत्थरको बोसा देना, परमेश्वर कृत पुस्तककी पूजा-सम्मान, -आदि द्वारा मूर्तिपूजाके विरोधीके मूर्तिपूजा-रूप भावसे; तथा मूर्तिभंजक ओसवालादि जातियोंकी उत्पत्ति कथासे मूर्तिपूजाका मंडन किया गया है। साथ ही मूर्तिपूजासे प्राप्त आत्मिक भाववृद्धि आदि लाभ और उसका महत्व भी प्रस्तुत किया गया है।
पश्चात् जीवोंकी आयु, अवगाहना, तीर्थंकरों के बीच कालांतर-प्रमाणादि अनेक तथ्यों को कठोपनिषद तौरेत आदि धर्मग्रन्थों के संदर्भोसे, तर्क बद्ध सिद्ध करते हुए, जैनधर्मके आठ निह्नव, ढूंढक मतकी तवारिख, अन्य सभीमत-संप्रदायके प्रवर्तक साधुओं की ओर इंगित करते हुए, जैनधर्मके ही सैद्धान्तिक प्ररूपणायें-मूर्तिपूजन-आदिमें समान श्रद्धालु जीव, समाचारीमें भिन्नताके कारण पूनमिया, अंचलिया, सार्ध पूनमिया, आगमिया, खरतर, पार्श्वचन्द्रादि अनेक गच्छ-संप्रदाय आदिमें विभक्त होते गए उसे पेश करके अंतमें स्थानकवासीओंका स्वरूप और परंपराका निर्देशन करवाते हुए द्वितीय खंडकी प्रवेशिका पूर्ण की है। द्वितीय खंडः आराधकके इक्कीसगुण--दस प्रकारसे दुर्लभ ऐसे उत्तम मनुष्य जन्म प्राप्त करके , सद्धर्मकी प्राप्ति और उसका आचरण अति दुर्लभ है। इस दुर्लभ एवं अचिंत्य चिंतामणी तुल्य धर्म प्राप्तिके योग्य आत्माका निम्नांकित इक्कीस गुणयुक्त होना आवश्यक है-जिनका विशिष्ट रूपसे लेखकने वर्णन किया है। यथा-कोई भी धर्मात्मा अक्षुद्र, रूपवान, सौम्यप्रकृति, लोकप्रिय, अक्रूर-चित्त, भीरू, अशठ, सुदाक्षिण्य, लज्जावान् दयालु, माध्यस्थ, सोमदृष्टि, गुणानुरागी, विकथा-त्यागी, सत्कथाकारी, सुपक्ष युक्त, सुदीर्घदर्शी, विशेषज्ञ, वृद्धानुग, विनीत, कृतज्ञा, परहितकारी, एवं लब्ध-लक्ष्य (नूतन ज्ञानप्राप्ति योग्य)होने पर शीघ्र आत्म कल्याण कर सकता है। यहाँ लोकविरुद्धत्वके अंतर्गत सप्त व्यसनों की विस्तृत चर्चा; छ निकायके जीवों की रक्षान्तर्गत अहिंसा व्रत द्वारा ही अन्य चार व्रतों की रक्षा का विशिष्ट स्वरूप, हिंसाका स्वरूप और अन्नाहार एवं मांसाहारमें भक्ष्याभक्ष्यपना, चार विकथाका स्वरूप, विनयके पांच भेद, दो प्रकारका औपचारिक विनय और उनके उपभेद आदिका विशद रूपमें विश्लेषण किया गया है। ये इक्कीस गुण धर्म प्रासादकी मजबूत नींव या योग्य भूमिमें
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