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ग्रहणकी अन्य योग्यताओं की सान्निध्यतासे खंडित करके परमात्माके यथार्थ -सार्थक अनेक नामोंका उल्लेख करते हुए सृष्टि के सर्जनका खंडन और प्रवाहसे अनादि शाश्वतताका मंडन किया गया है। 'सत्यार्थ प्रकाश में जैन सिद्धान्तोंकी उटपटांग प्ररूपणाका एवं नये 'सत्यार्थ प्रकाशमें' भी जैन-बौद्ध-चार्वाक आदिके सिद्धान्तों का बेमेल-भेल-संभेलका प्रत्युत्तर देकर दयानंदजीकी झूठी प्रतारणाका पाखंड और मिथ्याभिमानका पर्दाफास किया है। जैन सिद्धान्त स्याद्वाद-सप्तभंगीका खंडन, काल-संख्या, अंकोकी गणित विधि-भूगोल-खगोलादि विषयक मिथ्या प्ररूपणायें, जीवोंकी आयु-अवगाहना-स्वर्ग या मोक्षप्राप्ति विषयक भ्रम आदि अनेक शंका समस्यायेंकृष्णके नरकगमनकी प्ररूपणाकी आपत्ति आदि का प्रमाणभूत-युक्ति युक्त तर्कों द्वारा प्रत्युत्तर देते हुए दयानंजीके मूर्तिभंजक रूपके आडम्बरकी स्पष्टता करते हुए अनेक उदाहरणों द्वारा उन्हें परोक्ष रूपसे मूर्तिवादी सिद्ध किया है। निष्कर्ष--- इस तरह ईश्वर विषयक वेदोंकी प्ररूपणा, वैदिक इतिहास, हिंसक यज्ञ, विपरित वेदार्थ करनेवाले श्री दयानंदजी आदिके खंडनों का खंडन-मुक्ति विषयक चर्चा, ॐकारका यथार्थ अर्थ आदि अनेक विषयों के विश्लेषण इस प्रथम खंडमें किये गये हैं। प्रवेशिका (खंड-२):-जैन इतिहास परिचय--- जैनधर्मके माहात्म्य एवं उत्तमता सिद्ध करनेवाले जैनधर्मोत्पत्ति-ऐतिहासिक उपयोग-प्रमाणादिकी प्ररूपणा करते हुए संसार स्वरूप-द्रव्यार्थिक नयसे अनादि-अनंत (शाश्वत रूपमें) प्रवहमान और पर्यायार्थिक नयसे समसमयमें उत्पत्तिवान-नाशवंत भी है --- प्रस्तुत किया है। (यहाँ कालस्वरूप, तीर्थ-तीर्थंकर-तीर्थंकरत्वका स्वरूप, कर्म और निमित्तोंको ही फल प्रदाता ईश्वर रूप मिथ्या-मान्यतादिके तत्त्व जिज्ञासु-माध्यस्थ बुद्धिवानों को स्वीकार्य रूपमें पेश किया है।
उत्तम जैनधर्मके अधिकतम प्रचार-प्रसारके अभावके प्रमुख कारणभूत वर्तमानमें जैन प्रजामें उद्भावित प्रमादजन्य अज्ञान, राज्याश्रयका अभाव, जैन सिद्धान्तोंकी गहनता और क्रियातपादिके अनुष्ठानकी कठिनताकी चर्चा करते हुए उसे दूर करने के लिए प्रचार, प्रसारके लिए प्राचीन ज्ञानभंडारों का जीर्णोद्धार, संस्कृत-प्राकृत भाषाका प्रचार-प्रसार, एवं स्वीकारकी प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी है।
तत्पश्चात् जैन इतिहासकी प्ररूपणा करते हुए युगलिकयुग, हिंसक यज्ञ आर्य-अनार्यवेद, अन्य अनेक मतोत्पत्ति, बौद्ध धर्मका प्रचलन, जैन ग्रन्थों की तवारिख सहित सिलसिलेवार प्ररूपणा, पूर्वाचार्यों का परिचय पंचांगी रूप धर्मशास्त्रोंकी विषयगत विशालता और उसकी महत्त्वपूर्ण उत्तमताका परिचय दिया है। जैन सिद्धान्तानुसार द्रव्यसे भेदाभेद रूप अनादिकालीन द्रव्यशक्तिको ही परमतवादीका अज्ञानतावश सगुण ईश्वर, परमब्रह्म, माया, प्रकृति आदि नामसे पहचानना, अथवा अनंत गुणधारी सिद्ध परमात्माको नहीं लेकिन अठारह दोष युक्त देव मानना; सिवाय अरिहंत-सिद्ध, अन्य देवोमें देवत्व योग्य गुणाभावसे जैनोंका अन्य देवोंको देवरूप न माननेके कारण 'नास्तिक' उपनाम या अवहेलना सहना; यथार्थ आत्म स्वरूपकी प्राप्तिके लिए जैनदर्शनकी सर्वांग संपूर्णता आदि अनेक
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