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________________ तथा पिप्लादसे तो मातृमेध एवं पितृमेध जैसे भयंकर हिंसक यज्ञ प्रारम्भ होते हैं। सांख्यादि अन्य मतोत्पत्ति और प्रचलन-सूर्यवंश, चंद्रवंश, वानरवंश, राक्षसवंशादिकी उत्पत्तिके ऐतिहासिक प्रमाण-जमदग्नि, परशुराम और सुभूम चक्रवर्तीके संबंध-विष्णुकुमार और नमुचिका अधिकारराम, लक्ष्मण, रावणके संबंध और रावणको प्राप्त दशानन उपनामका कारण, कृष्ण वासुदेव, जरासंघ प्रतिवासुदेव और तीर्थपति श्रीनेमिनाथके संबंधोका वृत्तान्त, कृष्णजीकी 'पूर्णब्रह्मपरमात्मा-ईश्वर'- स्वरूपसे पूजा प्रारम्भका वाकया 'बद्रीपार्श्वनाथ' तीर्थोत्पत्तिका स्वरूप आदि अनेक ऐतिहासिक वृत्तांतोंकी प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष-इस प्रकार चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव प्रतिवासुदेव, नव बलदेवका अति संक्षिप्त फिरभी रोचक चरित्र वर्णन करके इस परिच्छेदकी पूर्णाहुति की गई है। द्वादश परिच्छेदः- श्री महावीर स्वामीके शासनकी गुर्वावलि - इस परिच्छेदमें भ.महावीरके पटके सुशोभित रत्न श्री सुधर्मा स्वामीजीसे ग्रन्थकार श्रीमद् विजयानंद सुरीश्वरजी म.सा. पर्यंत सभी पट्ट परम्परकों के गुणानुवाद रूप चरित्रचित्रण किया गया है, जिसे इस शोध प्रबन्धके 'पर्व प्रथममें' विस्तृत रूपमें प्रस्तुत किया है। तत्पश्चात् तत्कालीन कई नूतन पंथ---गुजरातमें स्वामी नारायण, बंगालमें ब्रह्म समाज, पंजाबमें कू कापंथ-कोईलसे मौलवी अहमदशाहका नवीन फिरका, दयानंदजीका आर्य समाज, थियोसोफिस्टादिके नामोल्लेखके साथ द्वादश परिच्छेद और 'जैन तत्त्वादर्श' ग्रन्थकी परिसमाप्ति की गई है। निष्कर्ष-- जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की प्रायः अधिकांश प्ररूपणा इस ग्रन्थमें की गई है, अतः इसे जैनधर्मकी 'गीता' कह सकते हैं। अज्ञान तिमिर भास्कर प्रारम्भ--प्रकाश सर्वदा निर्भयता, निःशंकता और विशालताका प्रतीक है, जबकि अंधकार, भय, शंका और संकोचका; अतः प्रकाश वहाँ अंधकार नहीं और अंधकार वहाँ प्रकाश नहीं। अज्ञानांधकारसे भव्यों के उद्धार हेतु इस ग्रन्थमें श्री आत्मानंदजी म.सा.ने सार्थक प्रयत्न करके अपने गुरुत्वको सिद्ध किया है। “आर्हत् धर्मना तत्वोनी जे भावना तेमना मगजमां जन्म पामेली, ते लेखरूपे बहार आवतां ज आखी दुनियाना पंडितो, ज्ञानीओ, शोधको, धर्मगुरुओ, शास्त्रज्ञो, लेखको अने सामान्य लोको ऊपर जे असर करे छे ते ज तेनी ससारता अने उपयोगिता दर्शाववाने पूर्ण छे" -प्रस्तावना - अज्ञान तिमिर भास्कर - पृष्ठ ४-५. प्रवेशिका-१ प्रथम खंड़की पूर्व भूमिकाके प्रारम्भमें विशाल जन समुदाय पर ब्राह्मणों के प्रभावके कारण ही नूतन प्रस्फुटित अन्य मतोंका विलीन होना-इंगित करते हुए ग्रन्थाकार श्रीने स्वयं ग्रन्थ रचनाका प्रयोजन प्रस्तुत किया है-“वर्तमानकालमें परमतद्वारा मान्य-सत्य श्रद्धेयवेद-हिंसक यज्ञ प्रवृत्तिको लक्ष्यकर्ता अनेक विश्वमित्रादि क्षत्रिय तो कवष एलूषादि शुद्र दासीपुत्रों और ब्राह्मण ऋषियों द्वारा रचित मंत्र और ऋचाओका व्यासजी द्वारा किया गया संकलन है। अतएव वेद अपौरुषेय नहीं हैं। (144) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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