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पंचाचारका पालन-ग्रामांतर गमन त्याग, सावध योगोंका परिहारादिके साथ पर्व कृत्यमें दर्शित आराधना करणीय है। सांवत्सरिक (वार्षिक) कृत्य--संघपूजा, साधर्मिक वात्सल्य, तीन प्रकार से तीर्थयात्रा, स्नात्र महोत्सव; देवद्र व्यवृद्धि, महापूजा, रात्री जागरिका, श्रुतज्ञानकी नूतन रचना और पूजा, तपकी अनुमोदना रूप उद्यापन, तीर्थ प्रभावना गीतार्थ गुरुके योग प्राप्त होनेपर आलोचना और प्रायश्चित्तसे आत्मिक शुद्धि और मोक्षगामीपने की योग्यता आदि कर्तव्य करने योग्य है। यहाँ प्रायश्चित्त-दाता अधिकारी गुरुओं की योग्यताकी विशद विवेचना की गई है। जन्मकृत्य-- गृहस्थको अपनी संपूर्ण जिदगीमें करने योग्य अठारह कर्तव्यों का वर्णन किया है। उचितवास, विद्या-प्राप्ति, विवाह-विचार, योग्य मित्रकी मित्रता, श्री जिनमंदिर निर्माणजीर्णोद्धारादि, जिनप्रतिमा निर्माण-इन दोनोंकी प्रतिष्ठा, दीक्षाके लिए प्रेरणा और उसकी अनुमोदनार्थ महोत्सव कार्य, योग्य साधु-साध्वीको पदवी प्रदानादिके महोत्सव, ज्ञानभक्ति, पौषधशाला निर्माण, आजीवन सम्यक्त्व-बारहव्रतका पालन, सदैव दीक्षा ग्रहणके भाव और औदासीन्यतासे जलकमलवत् गृहवास सेवन, आरम्भ-समारंभका त्याग, आजीवन ब्रह्मचर्य, ग्यारह प्रकारसे श्रावक प्रतिमावहन, अंतिम समयमें दस प्रकारकी आराधना-संलेषणा-अनशन- या भाववृद्धि होने पर संयम अंगीकार करके भवस्थिति अल्पतर करने के प्रयत्न करने चाहिए। निष्कर्ष--इस प्रकार पांच प्रकारके कृत्योंका यथाशक्ति-यथायोग्य पालन करनेसे इहलौकिक और पारलौकिक-भौतिक एवं आत्मिक सुख भोगते हुए मोक्षसुख प्राप्तिकी शुभेच्छा व्यक्त की है। एकादश परिच्छेदः- त्रेसठ शलाका पुरुष वृत्त-निरूपण ---
तत्कालीन नूतन शिक्षा प्राप्त जिज्ञासुओंकी तसल्लीके लिए जैनधर्मकी शाश्वतता, वर्तमानकालीन जैनधर्मका प्रचलन, भ.श्रीऋषभदेवसे भ.श्रीमहावीर स्वामी पर्यंतके त्रेसठ शलाकापुरुषों के ऐतिहासिक वृत्तांतोंको धार्मिक परिवेशमें प्ररूपित किया गया है। जैनधर्म न किसी अन्य धर्मकी शाखा है-न अन्य धर्मसे निष्पन्न-न किसीका आविर्भत किया हुआ है। लेकिन द्रव्यार्थिक नयसे प्रवाहित रूपमें अनादिकालसे निरंतर चला आ रहा है-जिसका समय समय पर तीर्थंकरों द्वारा परिमार्जन और प्रसारण किया जाता है। यहाँ उत्सर्पिणी--अवसर्पिणीकालका वर्णन, कल्पवृक्ष-युगलिक धर्मसात कुलकर और उनकी दंडनीति आदिका वर्णन, ऋषभदेवके प्रति जगत्कर्ता और विश्वरक्षक रूपमें जैनेतरों की मान्यता, नमि-विनमि से इन्द्र द्वारा विद्याधर वंशकी स्थापना, भरत चक्रवर्ती द्वारा चार आर्य वेदोंकी रचना, माहण अथवा ब्राह्मणों की उत्पत्ति-ब्राह्मणों के व्रतधारी श्रावक और साधु होने के उल्लेख- (भरतके घर नित्यभोजी ब्राह्मण श्रावकोंकी पहचानके लिए काकिणि रत्नसे तीन रेखाको चिह्नित करना (वही तीन रेखा ही काकिणी रत्नके अभावमें सुवर्णरजत-रेशम या सूतके धागों की यज्ञोपवितका रूप धारण कर गई)- इस प्रकार यज्ञोपवितका प्रारम्भ हुआ। श्री सुविधिनाथ भगवंत तक यह परंपरा चली और बादमें बारबार जैनधर्मके विच्छेद होने पर याज्ञवल्क्यादि द्वारा स्वकपोल कल्पित नूतन वेद और हिंसक यज्ञ प्रारम्भ हुआ
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