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मोक्षमार्गाराधकादि गुणधारीकों शुद्धो-पदेशक रूपमें सिद्ध करने का सफल प्रयत्न किया गया है तथा उन सुगुरुओंकी सेवना-उपासना करने की ओर इंगित किया है। पंचम परिच्छेदः- धर्मतत्त्व (नवतत्त्व) स्वरूप निर्णय---
जो दुर्गतिमें जाते हुए जीवोंको धारे याने दुर्गतिमें जानेसे बचायें वह होता है धर्म। ऐसे पारलौकिक धर्मका स्वरूप तीन प्रकारका-स.ज्ञान, स.दर्शन, स.चारित्र-जिनको ग्रन्थकारने पांचसे दस-छ परिच्छे दोमें अति विशद विश्लेषण और विवरणके साथ निरूपित किया है। सम्यक ज्ञान---इसके अंतर्गत नय प्रमाण द्वारा जो यथावस्थित प्रतिष्ठित है-ऐसे जीवाजीवादि नवतत्त्व, चौदह गुणस्थानक आदिका यथार्थ अवबोध कराया गया है। इस परिच्छेदमें अति संक्षिप्त रूपमें ('बृहत् नवतत्त्व संग्रह' ग्रन्थके अतिरिक्त स्वरूप युक्त) 'नवतत्त्व' स्वरूप प्रस्तुत किया है। जीव--आत्माके लक्षण, स्वरूप; आत्माका कर्मबंधक-भोक्ता-निर्जरासे मोक्ष प्रपाक स्वरूप; स्वशरीर व्यापी, नित्यानित्य रूपी आत्माके जघन्य चौदह, मध्यम पांचसौ त्रेसठ, उत्कृष्ठ अनंतभेद दर्शाकर, आधुनिक शिक्षितों के एकेन्द्रियमें चैतन्य विषयक तार्किक प्रश्नों के उत्तररूपमें पृथ्वीकाय, अप्काय (वैज्ञानिक अन्वीक्षण अनुसार दृश्यमान ३६५२७ जीव-दोइन्द्रिय है-दृश्यमान जलही अपकायिक जीवोंके शरीर-कलेवरके समूह रूप होता है), तेउकाय (जिनके कलेवर समूहसे अग्नि दृश्यमान होता है), वायुकाय---चारोंमें चैतन्य-जीवत्वकी अनुभूतिकी सिद्धिको तार्किक-युक्तियुक्त-प्रत्यक्ष प्रमाणों से प्रस्तुत करके विशिष्ट कसौटी-छेद्य-भेद्य-उत्क्षेप्यभोग्य-प्रेय-रसनीय-स्पृश्यादि-सेभी इनमें सजीवत्वको प्रमाणित किया है। जीवों के शेष भेदों के वर्णनके लिए 'बृहत् नवतत्त्व संग्रह '-ग्रन्थकी और इंगित किया है। अजीव-धर्मास्तिकायादि पांच प्रकारके अजीवका स्वरूप संक्षेपमें प्रस्तुत किया है। पुण्य---पुण्य प्राप्ति करवानेवाले नव अनुष्ठान और विपाकोदयके बयालीस प्रकार दर्शाये हैं। पाप--आत्मीय आनंदशोषक पापकर्मबंधके १८ प्रकार और विपाकोदयके बयासी प्रकार पेश किये हैं। आश्रव-पुण्य और पाप-दोनों प्रकारके कर्मों का पाँच द्वारोंसे आत्माकी ओर आकृष्ट होना आश्रव कहलाता है जो बयालीस प्रकारके होते हैं। संवर--इन आश्रवोंका निरोधक, वह है संवर, जो सत्तावन भेद युक्त होता है निर्जरा--आठ कर्मों की आत्मासे निर्जरणा करानेवाली निर्जरा-तपसदृशबारह प्रकारसे मानी गयी है। बंध--कर्मों का बंध चार प्रकारसे-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग (रस) और प्रदेश; तथा स्पृष्ट-बद्ध-निधत्त-निकाचित चार प्रमाण रूप आत्मासे संलग्नता; आत्मा और कर्म-दोनों की अनादि अपश्वानुपूर्वीता; एवं कर्मबंधके सत्तावन उत्तरभेदोंका स्वरूप वर्णित किया है। मोक्ष--सर्व कर्मक्षय हो जाने से जीवका संपूर्ण निर्मल स्वरूप ही मोक्ष कहलाता है मोक्ष ही जीवका धर्म है, और मुक्त सिद्धात्मा धर्मी है। यहाँ सत्पद प्ररूपणादि बारह एवं द्रव्यादि नव द्वारोंसे सिद्धोंका स्वरूप विवरित किया गया है। निष्कर्ष-इस तरह नवतत्त्वोंकी विवेचना करके इस परिच्छेदकी पूर्णाहुति की गई है। षष्ठम परिच्छेदः--धर्मतत्त्व (स. ज्ञानांतर्गत गुणस्थानक) निर्णय----
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