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अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशागुरवो मतः ।।" धन-कण-कंचन-कामिनि, खेत-हाट-हवेली-चतुष्पदादि पशु-आदि अनेक प्रकारकी ऋद्धिसमृद्धिके अभिलाषी, प्राप्तिके पुरुषार्थी और रक्षामें आसक्त-सर्वाभिलाषी; भक्ष्याभक्ष्य या उचितानुचित सर्व प्रकारके आहार-पानादिका सेवनकर्ता-सर्वभोजी; कुगुरुत्वके असाधारण कारणरूप अब्रह्मसेवीस्त्रीरूप परिग्रहधारी एवं अन्य ऋद्धि समृद्धिके परिग्रहधारी-सपरिग्रहा; सर्वज्ञ-के वली भाषित धर्मसे विपरित, अन्यथा-वितथ धर्मोपदेशका-मिथ्यामति लक्षणोंवाला कुगर होता है । पाखंडीके ३६३ मत-कुगुरुके सामान्य स्वरूपालेखन पश्चात् मिथ्या उपदेशकके तीनसौ त्रेसठ भेदोंका (क्रियावादी के १८०+आक्रियावादीके ८४+अज्ञानवादीके ६७+विनयवादीके-३२ = ३६३) सविस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हुए और इन सभीको मिथ्यात्वी माननेके कारणमें उनके एकांतवादी होनेका दर्शाते हुए इन सभीकी एकान्तिकताको न्यायादि-नय प्रमाणकी अनेक तर्कसंगत युक्तियोंसे खंडित करके रोचक एवं ज्ञानप्रद विश्लेषण किया है। एकान्त दर्शनोंका स्वरूप और अनेकान्तकी स्थापना---तदनन्तर बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, प्राचीन-निरीश्वर सांख्य और अर्वाचीन-सेश्वर सांख्य, पूर्व और उत्तर मीमांसक-ये पांच एकान्तिक, और अनेकान्तिक जैनदर्शन---ये षट् आस्तिक दर्शन; एवं कापालिक, वाममार्गी, कौलिक, चार्वाक आदि धर्माधर्म-आत्मा-कर्म-मोक्षादि न माननेवाले तथा चारभूतोंसे ही चैतन्योत्पत्तिउसमें ही विलीन होना माननेवाले- नास्तिक दर्शनों के स्वरूप अनेकशः रूपमें प्रस्तुत किया है। तत्पश्चात् उपरोक्त पाँच आस्तिक दर्शनों के पारस्परिक आंतरिक विरोधोंका निर्देशन और एकान्तवादी दर्शनों के विकलांग सिद्धांतोका पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष स्थापित करके नय-प्रमाणके न्यायिक तर्क की तुला पर युक्तियुक्ततासे विश्लेषित करके इनसे व्युत्पन्न अनर्थों को व्यक्त किया हैयथा-बौद्धोंका क्षणिकवाद; नैयायिकोंका ईश्वर जगत्कर्तृत्व-जगत् नियंता और सोलह पदार्थ; वैशेषिकों के छतत्त्व और नवद्रव्य-दोनोंका मोक्ष स्वरूप; सांख्योंका जगदुत्पत्ति-आत्मा व प्रकृति आदिका स्वरूप; मीमांसकका अद्वैतवाद एवं जैमिनियोंकी वेद विहित याज्ञिकी हिंसाको हिंसा न मानना इन सभीकी मान्यताओंका नीरसन करके अंतमें सदाबहार-विजयी अनेकान्तको स्थापित करने का सफल प्रयत्न किया है। इस प्रभावोत्पादक विश्लेषणके पठन-पाठन और अध्ययन-चिंतन-मननसे कई विद्वद्वर्य श्रेष्ठ पंडितों को भी अपने निर्णित निश्वयोंमें पुनः परामर्श करनेके लिए बाध्य होना पड़ा है। प्रत्यक्ष प्रमाण है परिव्राजक श्रीयोगजीवानंद स्वामी परमहंसजीका पत्र, जो 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' -पृ-५२६ पर उद्धत है। तदनन्तर नास्तिक चार्वाकादि दर्शनोंकी प्ररूपणा करके उनके अयुक्त सिद्धान्तोंका भी निरसन करते हुए, 'चैतन्य--भूतों के कार्य या धर्मसे नही; आत्मा से संलग्न है"--- इसकी पुष्टि की है। निष्कर्ष-इस तरह इस परिच्छेदमें कुगुरुके लक्षण, मिथ्या उपदेशक स्वरूप, भेदोपभेद सैद्धान्तिकमिथ्या उपदेशोंकी एकान्तिकतादिकी विवक्षा करते हुए षट्दर्शनका विस्तृत स्वरूप प्रस्तुत करके उन एकान्तिक दर्शनोंका खंडन और शुद्ध अनेकान्तिक दर्शनके प्ररूपक एवं उपकारी, आत्मिक हितेच्छु,
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