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________________ योगोपयोग-आहारानाहार-सूक्ष्म बादर चरमाचरमादि पचास द्वारोंसे अष्टकर्मबंधका निश्चय अथवा भजना (होयानहीं) का स्वरूप; गुणस्थानकाश्रयी कर्मबंध-गुणस्थानक और जीवभेदाश्रयी कर्मप्रकृतिके उदय-सर्वगुण स्थानक वर्ती सर्व जीवोंकी कर्मसत्ता-जघन्य और उत्कृष्ट प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेशबंध-चारोंके अर्थ, दृष्टान्त, कारण, भेदसंख्या, प्रमाण, बंधस्थान; भूयस्कार-अल्पतर-अवस्थितअवक्तव्य बंधका आठ कर्मोंका स्वरूप (यंत्र द्वारा), कर्म बंध हेतुओंका वर्णन करके अंतमें पृथक पृथक् गुणस्थान आश्रयी, मिथ्यात्वादि पाँच कारणसे सांयोगिक आदि भंगोका विवरण करते हुए 'पंचसंग्रह' आधारित युगपत् बंध हेतुको स्पष्ट किया गया है। सर्व गुण स्थानकके विशेष बंध हेतु संख्या ४६,८२,७७० का विवरण करके बंध तत्त्व प्रकरणकी इतिश्री की गई है। मोक्षतत्त्व-इसके अंतर्गत चौदह गुणस्थानक श्रेणिको लेकर निर्जरा एवं काल द्वारसे अल्प-बहुत्व उपशम श्रेणिका स्वरूप और क्षपक श्रेणिका स्वरूपः क्षेत्र-काल-गति-तीर्थ-लिंग-चारित्र-बुद्ध-ज्ञान-अवगाहनादि द्वारोंसे द्रव्य परिमाण (जीव) और निरंतर सिद्ध होनेके यंत्रको और सांतर सिद्ध होने के स्वरूपकोअतः अनंतर और परंपर सिद्ध स्वरूप लिखते हुए अल्प बहुत्वकी प्ररूपणा- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, तीर्थादि द्वारोंसे की है। अंतमें अधोमुख, उर्ध्वमुख (कायोत्सर्ग), वीरासन, ऊकडूआसन, न्यूनासन, पासे स्थित, उत्तानस्थित, सन्निकर्षादि द्वारोंसे अल्प-बहुत्वकी प्ररूपणा करते हुए अंतिम 'मोक्षतत्त्व' प्रकरणका समापन किया है। निष्कर्ष---इस प्रकार सम्यक्त्वको दृढीभूत कर्ता, समस्त जैन सिद्धान्तके साररूप जीवाजीवादि नवतत्त्वके संपूर्ण स्वरूपको-आगम एवं पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रन्थाधारित विविध यंत्र, तालिकायें, चित्र आदि द्वारा विश्लेषित करके, आगमादिके अनधिकारी, शास्त्र-सैद्धान्तिक ज्ञानसे अपरिचितबालजीवके उपकारार्थ. -इस ग्रन्थमें सरल भाषामें विवरित किया गया है। अतः जैन दर्शनके सिद्धान्त---ज्ञानस्वरूप जिज्ञासुओं के लिए अत्युपयोगी यह ग्रन्थ रचना करनेका ग्रन्थकारका पुरुषार्थ सफल हुआ है। __---जैन तत्त्वादर्श--- “स्यात्कार मुद्रितानेक सदसद्भाववेदिनम् । प्रमाणरूपमव्यक्तं भगवंतमुपास्महे” । ग्रन्थ-परिचय संविज्ञ साधु-जीवन अंगीकृत श्री आत्मानंदजी म.सा.ने चिरकाल प्रेरणादायी उपदेश स्वरूपको ग्रथित करके जैन समाज पर महदुपकार किया है। भगवंतकी उपासना रूप मंगलाचरण करते हुए 'जैन तत्त्वादर्श' ग्रन्थमें देव-गुरु-धर्म-तत्वत्रयीका स्वरूपालेखन करते हैं। छसौ पृष्ठ एवं बारह परिच्छेदमें समाहित अनेक जैन-जैनेतर ग्रन्थोंके अध्येता दिग्गज विद्वद्वर्य सूरिदेव इस प्रसिद्ध ग्रन्थालेखनका आशय स्वयं स्पष्ट करते है- “संस्कृत-प्राकृतके अभ्यास के लुप्त प्रायः होने से, उन भाषाओंमें रचित अद्भूत एवं उत्तम ग्रन्थ विषयक ज्ञान भी अदृश्य होता जा रहा है। अत: उस महान ज्ञानालोकसे वर्तमानमें भव्य जीवोंको अवबोधित करने हेतु; अंग्रेजी-फारसी आदि नूतन विद्यार्जनके कारण अनेक शंका-कुशंकायें प्रचलित हुई हैं - उनके नीरसन हेतु; स्वकर्म निर्जरा हेतु इस ग्रन्थालेखनका प्रयास किया (132 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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