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भगवती सूत्राधारित विवरित किया है।
तत्पश्चात् पांचो अस्तिकायके परस्पर स्पर्शनादिकी प्ररूपणा हुई है। परमाणु एवं पुद्गल स्कंधों के अल्प- बहुत्व, चल-अचल स्थिति, अंतर, कालमान, संख्यात असंख्यात अनंतादिका स्वरूप यंत्रोंसे स्पष्ट करते हुए अंतमें कालकी अपेक्षा अल्प- बहुत्व; षट् - द्रव्यके नित्यानित्य, पर्याय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान एवं पुद् गलके तीन प्रकारके बंधोका स्वरूप दर्शाया है। पुण्यतत्त्व --- यंत्र एवं समवसरणके चित्र सहितपुण्य कर्मबंधके नव एवं कर्मविपाक याने पुण्य भोगने के बयालीस प्रकार नाम निक्षेपसे प्रस्तुत करके उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति तीर्थंकर नामकर्मकी स्थितिका स्वरूप (यहाँ समवसरणका परिचय और उनसे कम पुण्यवान बारह चक्रवर्ती, नव नव प्रतिवासुदेव, वासुदेव, बलदेवादिका परिचय देते हुए इस प्रकरणको पूर्ण किया है। पापतत्त्व की प्ररूपणा करके केवल १८ प्रकारसे बंध और ८२ प्रकारसे विपाकका उल्लेख किया है।
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आश्रव तत्त्व--- अर्थात् पाप-पुण्य कर्मका आत्माके प्रति आगमन क्षीर नीरवत् एक होना, उनका क्रियमाण होना-कर्मोंको आकृष्ट करके आश्रव करवानेवाली क्रियायें व्यवहारमें 'काईया' आदि २५ क्रियाओंका स्वरूप, कर्मग्रन्थाधारित आश्रवके ५७ कारण श्रीस्थानांग सूत्राधारित दस असंवरके स्थान, नवतत्त्वाधारित बयालीस प्रकारोंके निरूपणके साथ आश्रव तत्त्व सम्पूर्ण किया गया है। संवरतत्त्व-संवर अर्थात् रोकना । आत्म परिणतिसे आकृष्ट कर्माश्रवको जिस विधि- आचारसे प्रतिरोधित किया जाता है, उस क्रियाविधिको 'संवर' अभिधान दिया है। इसके विविध प्रकारान्तर्गत षट्ििनर्गन्थ, पांच चारित्र, पाँच समिति तीन गुप्ति, बारह भावना; कर्मसंवरके प्रधान कारणभूत प्रत्याख्यानके दसभेद-स्वरूप आगार छशुद्धि-आहार - अनाहार, विगय-महाविगय, अभक्ष्य द्रव्य अनंतकाय, - श्रावकके बारह व्रत एवं प्रत्येकके आनुषंगिक भंगादिको विवरण सहित पूर्ण किया है।
निर्जरातत्त्व---'जू' अर्थात् झर जाना हानि होना अतः व्युत्पत्त्यार्थ होगा अतिशय हानि होना अर्थात् आत्मासे बद्ध कर्म पुद्गलोंका अतिशय क्षीण होना वह 'निर्जरा' कहलाता है विशेषतः कर्म निर्जराका प्रमुख सहयोगी तप होनेसे इसके बारह भेद कियेगये हैं- जो बारह भेद तपके किये गये हैं। यथाछ भेद बाह्य अनशन, उनोदरिका, भिक्षाचरी (वृत्तिसंक्षेप), रस परित्याग, कायक्लेश, संलीनता; छ भेद अभ्यंतर - विनय, वैयावृत्य, ध्यान, स्वाध्याय, प्रायश्चित्त और व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग ) -- निश्चित किये गये हैं। इनमें अति महत्त्वपूर्ण विशिष्ट भेद 'ध्यान की प्ररूपणा श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण विरचित 'ध्यान शतक' प्रन्याधारित आर्त रौद्र धर्म शुक्ल चारों प्रकारके ध्यानके भेदोपभेदका स्वरूप, ध्यानके स्वामी, लक्षण, लिंग, लेश्या, फल आदिका सवैया इकतीसा एवं दोहा छंदमें विवेचन किया गया है। बन्धतत्त्व. सर्व बंध- देशबंधकी स्थिति पांच शरीर के सर्वबंध- देशबंध अबंधक स्थिति, दो बंध
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बीच अंतर और अल्प-बहुत्व, बंधके चारभंगोका आठकर्म एवं सर्व प्रकारके जीवाश्रयी, त्रिकालाश्रयीभवाश्रयी स्वरूप (२८ यंत्रो द्वारा); निरुपक्रम और सोपक्रम आयुष्य, आयुष्य समाप्त होनेके भयादि अध्यवसायादि सात प्रकार (कारण): वेद-संयम-दृष्टि-दर्शन-ज्ञान- भव्याभव्य पर्याप्तापर्याप्ता
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