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सहयोगी श्री विश्नचंदजी, श्री चंपालालजी आदि बीस साधु श्री अमरसिंहजीसे नाता तोड़कर प्रकट रूपसे आपसे आ मिले। परिणामतः आपके आदर्श जैन धर्मके प्रचार-प्रसार में प्रकट रूपसे कार्यान्वित होने से आपके कार्य में ज्वारकी सदश जोश आया और शीघ्रतासे लक्ष्यकी और बढ़ने लगा। संन्यासके योग:--- सामान्यतः किसीभी सन्यासीकी जन्म कुंडलीमें किस प्रकारसे ग्रहों की स्थिति होती है इसका अभ्यासपूर्ण विवरण श्री चंद्रकान्त पाठक कृत---वि.सं. २०५१ 'जन्मभूमि पंचांग में “संन्यासके योग" शीर्षकान्तर्गत लेखमें किया गया है जो अवलोकनयोग्य होनेसे यहाँ हिन्दी अनुवाद रूपमें उद्धृत किया जा रहा है। ५ सन्यासीकी कुंडलीमें क्या देखेंगे ?. जन्मकुंडलीमें लग्न त्यागकी भावना, संस्कृतिकी रक्षा, धार्मिक वृत्ति, मोहक व्यक्तित्व, मानवतावादी स्वभाव, आदि देखना चाहिए। चंद्र-गुरु या शुभ ग्रहोंसे संबंधित होना चहिए। तीव्र बुद्धिके लिए बुध और ज्ञानके लिए गुरु-अच्छा होना चाहिए। धनभुवनसे आकर्षक वक्तृत्व शक्ति-वाणीका प्रभुत्व होना चाहिए। विशाल जनसमुदाय वा शिष्यगणको वाणीसे प्रभावित करने की शक्ति अनिवार्य है। सरस्वती-कृपाके लिए गुरु बुध एवं धनेश बलवान होना चहिए। चतुर्थ-सुखस्थानसे अंतःकरण दृष्टव्य है। अंतःकरणमें ही कल्पनायें-सुख-वृत्ति आदिका जन्म होता है। और पंचम स्थान विद्या भुवनमें से पूर्वजन्म, पूर्वजन्मके संस्कारादि ज्ञात होते हैं। स्त्रीभुवन सप्तम स्थान दूषित हों जिससे दुःखपूर्ण संसार असार भासित होता है और व्यक्ति वैराग्यमय बनता हैं। भाग्य-धर्म-भुवनसे धार्मिक आस्था, धार्मिक कार्य, धर्मस्थान-मंदिरादिका नूतन निर्माण एवं जीर्णोद्धारादि करने की कार्यशक्ति एवं पूर्व जन्म सूचित होता है। धर्म भुवनमें धर्मेश स्वगृही हों तो अच्छा। द्वादश मोक्ष स्थान, मृत्यके बादकी जीवकी स्थिति स्पष्ट करता है। मंगल ग्रह ईच्छा-पूर्तिकी आशा कराता है, जबकि गुरु आशा-तृप्ति कराता है। बारहवें चंद्र अथवा शनिकी दृष्टि हों-ऐसे योग जैन साधुओंकी कुंडलीमें देखने में आता है। गुरु शनिकी युति, प्रतियुति, स्वगृही या उच्चका-प्रबल हों तब आध्यात्मिक शक्ति प्रबल होती है।
लग्नेश भाग्य स्थानमें, भाग्येश पर लग्नेशकी दृष्टि-दीक्षा अंगीकरणका सूचन करता है। लग्नेश या भाग्येश स्वगृही अथवा भाग्येश-लग्नेशका परिवर्तन योग भी हो सकता है। भाग्य-भुवनमें तुलाका उच्चका शनि, स्वगृही शुक्र और गुरु हो तो संन्यास लेकर सर्वत्र आदर पाता है। शुभ ग्रहके नवमांशमें चंद्र उच्चका हैं, शनि स्वगृही या उच्चका केन्द्र त्रिकोणमें हों, गुरु स्वगृही या उच्चका हों तब व्यक्ति चारित्रवान, प्रथम कक्षाका संत-जगत्गुरु बनता है जन्मकुंडलीमें उच्च ग्रह पर कर्क के गुरु, मीन-तुला-वृषभके शुक्र और कर्क का-वृषभका चंद्र-जैसे ग्रहकी दृष्टि हों तब सर्वत्र आदरपात्र, उपदेशदाता बनता है। धर्मश्रद्धा प्रकट करने, दुःखीके दुःख दूर करने, मनोवांछित कामना पूर्ण करने, प्रवचन एवं प्रेरणा द्वारा धार्मिक कार्यों के लिए सबको प्रेरित करनेवाला होता है।
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