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________________ ३३ सहनशील, संयमशील, मेहनती, करकसर स्वभावयुक्त, दृढ़ निश्चयी, स्पष्ट, गंभीर, विवेकी, मृदुभाषी निष्पक्षपाती न्यायी, शास्त्रोंके गूढ़ अभ्यासके कारण उच्च अध्यात्म ज्ञानी, विद्वानलेखक, प्रकाशक, गूढ तत्वज्ञान चिंतक प्रचारक-प्रसारक, अनेक गुणोपेता वाणीके प्रभावसे उच्च स्थान प्राप्यकारी साधु बन सके थे। आपके लिए विदेश यात्राका भी योग था । साधुजीवनकी मर्यादाओंके कारण आपने उस लोभको त्याग कर श्री वीरचंदजी गांधीको भेजकर और अक्षर देहसे- 'चिकागो प्रश्नोत्तर' ग्रंथ द्वारा वहाँ पहुंचकर जिनशासनका विजय ध्वज फहराया। इससे आपकी शानशांकतको चार चाँद लगे। इसके साथसाथ नवमका शनि धर्म वृद्धि, लोककल्याणकारी सामाजिक क्रान्तिके लिए प्रयत्नशीलता, विश्व बंधुत्व स्थापित करनेके भाव, स्वार्थ एवं निजी सुख प्राप्तिके लिए बेफिकर उपभोगमें भी त्यागकी भावना आदि प्राप्त करवाता है। उपरोक्त सर्वगुणपुष्पोंकी हारमाला श्री आत्मानंदजी महाराजजीकी आत्मशोभामें अभिवृद्धि करती थी। इनके जीवन प्रसंगों को अवगाहते समय इन सद्गुण सुमनोंको हम पग-पग पर सुरभि बिखेरते हुए जीवनोद्यानको महकाते हुए अनुभूत करते हैं। "नवम स्थानका केतु जातकको इतिहास और पुराण शास्त्रोंका रसिक और प्रखर वक्ता बनाता है। ध्येयलक्षी और विरोधीओंका प्रबलतासे सामना करके सदा विजयी बनता है।" २४ दसम स्थान चार केन्द्र स्थानोमें लग्नस्थानके पश्चात् द्वितीय क्रमसे दसम (कर्म) स्थान महत्त्वपूर्ण माना गया है। इस स्थानसे व्यापारादि एवं राजद्वारी कार्य, राजकीय सम्मान, पितृसुख, यश-मान- प्रसिद्धि आदि निर्देशित किया जाता है। इस स्थानमें एक भी ग्रह स्थित नहीं है। वृश्चिक राशि होनेसे कर्मेश मंगल है जो नीचका होने पर भी मित्रग्रह उच्चके गुरुसे युति संबंधके कारण नीचभंग राजयोग प्राप्त करता है। उच्चके गुरुकी कर्मस्थानमें पंचम पूर्णदृष्टि होनेसे यश मान प्रतिष्ठा और वाद-विवाद में सदा विजयशीलताकी बक्षिस करता है। जैसे - " रतलाममें सूर्यमलजी कोठारी के साथ ग्यारह या बत्तीस मूलागम ? प्रश्न पर बादमें; अहमदाबादके चातुर्मासमें श्री शान्तिसागरजीसे 'शास्त्रानुसार धर्मपालन करनेवाले साधु या श्रावक के अस्तित्व' विषयक प्रश्न पर शास्त्रीय चर्चा में भावनगरके चातुर्मासमें वहाँके राजासाहब और उनके वेदान्ती गुरु स्वामी आत्मानंदजी से "सर्व खल्विदं ब्रह्म" "अहं ब्रह्मास्मि" एवं "ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या" विषयों पर संद्धान्तिक समन्वयवाले वार्तालापमें; बिकानेरके चातुर्मासमें वहाँके राजा और उनके संन्यासी गुरुके साथ "उत्पाद व्यय-ग्रीव्य युक्तं सत्" को जैन दर्शनके स्याद्वाद सापेक्षवाद, अनेकान्तवादसे - सन्मति तर्क, स्याद्वाद मंजरी आदि और जैनेतरकुमारिल भट्ट, वाचस्पति मिश्र आदिके ग्रंथोंके उद्धरण देकर जैन दर्शनका दार्शनिक समन्वय दर्शाकर के उन्हें संतुष्ट एवं प्रसन्न किया; जोधपूरमें जोधपूर नवाब और उनके भाई की 'अनीश्वरवाद और नास्तिकता' विषयक भ्रमजालका पर्दाफास करके; लिंबड़ी नरेश की 'ईश्वर जगत्कर्तृत्व' विषयक शंकाओंका नीरसन करके; अंबालामे आर्यसमाजी कार्यकर्ता पंडित लेखारामजी से भी 'अनीश्वरवाद और नास्तिकता' विषयक अनेक जन Jain Education International 113 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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