SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्ताईस घंटे का समय लगता है। तिथि-एकमादि से अमावास्या तक तीस होती वार (दिन)- एक सुबहके सूर्योदयसे दूसरे दिनके सूर्योदय तकके समयको 'वार' (दिन) कहते हैं। उसका समय चौबीस घंटे प्रायः होता है। हिन्दु एक सूर्योदयसे दूसरे सूर्योदयको, ईसाई मध्यरात्रिसे और मुस्लिम सूर्यास्तसे वारका प्रारम्भ मानते हैं। वार सात होते हैं। रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि। नक्षत्र - क्रांतिवृत्तके आरंभ स्थानसे प्रत्येक १३ अंश, २० कला विभागको नक्षत्र कहा जाता है। क्रांतिवृत्तके ऐसे २७ विभाग होते हैं, तदनुसार नक्षत्र सत्ताईस होते हैं। एक नक्षत्रको पूर्ण करने में चंद्रको कमसे कम २१ घंटे और अधिकतम २७ घंटे और २७ नक्षत्रको पूर्ण करने के लिए २७ दिन-७ घंटे से कुछ अधिक समय लगता है, और ऐसे बारह चक्र जब वह पूर्ण करता है तब एक चांद्र नक्षत्रवर्ष होता है जिसका कालमान ३२७ दिन, २० घंटे, ३८ मिनट, १८.१२४८ सेकंड होता है। योग :- सूर्य-चंद्रके राशि, अंश, कला, विकलाको जोडने से जो राश्यादि आये उनका प्रत्येक १३ अंश, २० कलाके विभागको योग कहा जाता है। वे भी सत्ताईस है। उनका समय जधन्यसे बीस से उत्कृ. पचीस घंटेका होता है। करण - करण अर्धतिथि है, क्योंकि एक दिनमें दो आते हैं। वे ग्यारह होते है। जिसमेंसे पाँच अशुभ और छ शुभ है । ये संक्रान्तिके शुभाशुभ फल कथनमें उपयोगी हैं। १४ साधारण भावविचार अर्थात् फलादेशके मूल्यवान सिद्धान्त :.१५ १. जिस भावमें बुध-गुरु-शुक्र विराजमान हों अथवा जो भाव बुधादि ग्रहसे दृष्ट हों और उस भाव (स्थान) में अन्य किसी पापग्रहका रहना या दृष्टि न हों तब उस भावसे संबंधित सभी फल अच्छे प्राप्त होते हैं। (जिस भावमें अपना स्वामी- अर्थात् भावस्थित राशिकास्वामी-विराजित हों, या उनकी दष्टि हों तब उस भावका शुभ फल प्रदान करता है ।) २. जिस भावमें शुभ ग्रह की राशि हों और उस स्थानमें ही उसका स्वामी बिराजित हों वा उसकी दष्टि हों तब उस भावमें दृष्टव्य प्रत्येक बाबतोंका अच्छा सुख देता है। यदि पापग्रहका बिराजना या दष्टि हों तब उस भावका अच्छा फल नहीं मिलता है। ३. जिस भावमें नीच ग्रह वा शत्रुकी राशिका ग्रह बिराजित हों उस भावका सुख नहीं मिलता है। जबकि जिस भावमें मूलत्रिकोण, उच्च एवं मित्रके गृहमें शुभ या अशुभ (पाप) कोई भी ग्रह हों तब वह उस भावका अच्छा ही फल-सुख-प्रदान करता है। ४. जिस भावका स्वामी ६-८-१२ वें स्थान पर हों तब उस भावका, और जिस भावमें ६-८-१२ वें स्थानका स्वामी बिराजित हों उस भावका अच्छा फल नहीं होता है; लेकिन (103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy