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शाश्वत संतुष्टि प्रदाता है जिनशासनके किसीभी सिद्धांतों को स्वीकारने वाले कोईभी दर्शनका समन्वय जिनशासनके अनेकान्तवाद और स्याद्वादमें प्राप्त होगा ही। क्योंकि, षट् दर्शनोंका निर्मल समन्वय जिनशासनमें है। इसलिए हे भाग्यवान ! आप इधर उधरके ठोकरें लगनेवाले भ्रमणको छोड़कर हीरासिंग जैसे शुद्ध-निर्मल सिद्धान्तवाले जिनशासनकी शरण लें जिन शासन आपके स्वागतके लिए हीरासिंगके समान सदैव सर्वत्र प्रसन्नतासे तत्पर है"--- ये है आपकी बुद्धि प्रतिभाका
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चमकार ।
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बहुमुखी प्रतिभाके स्वामी- आप जैसे विनीत, गुर्वाज्ञा प्रतिपालक, अनुशासित, ध्येयलक्षी, सत्य गवेषक कर्मठ शिष्य थे वैसे ही प्रबल अनुशास्ता, सिद्धांतवादी, दूरदर्शी, उत्तर दायित्वके समुचित
पालक आश्रितों एवं शिष्य परिवारके लिए वात्सल्य निधि श्रेष्ठ गुरुभी थे।
'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि ' - इस उक्तिको सार्थक कर्ता महान गुरुवर्यका चित्रण विद्वान शिष्य श्रीकान्तिविजयजीम की हस्तलिखित अप्रकाशित डायरीमें इस प्रकार है-" श्री आत्मारामजी स्वभावतः बहुत ही आनंद युक्त पुरुष थे। कईबार अत्यंत निर्दोष आनंद करते। कभी कभी शास्त्रीय राग-रागिनी गाकर स्वर-लय आदि समझाते। कभी गणितानुयोगकी गंभीर समस्यायें स्पष्टतः समझाते समय होनेपर आकाशके ग्रह-तारोंकी पहचान करवाते। कभी न्यायशास्त्रकी गहन वातें और नय-निक्षेपका महत्व सरल भाषामें स्पष्ट करते। कभी कभी स्वयमेव पूर्व-उत्तरपक्ष स्थापनाकर चर्चाकी शैलीका उदाहरण उपस्थित करते। श्रावकोंको उनके लिए उपयोगी सिद्ध होनेवाले उपदेश देते। दीक्षामें अपने बड़े किसी भी मुनिराजके समागमका अवसर आता तो अभिमान रहित उन्हें वंदना करनेको तत्पर रहते । मना करने परभी विनय धर्मानुसरण करते हुए वंदन व्यवहार करते ज्ञान और विनयके तो वे भंडार थे।"" वाक् संयम (तोल तोलकर बोल) महान व्यक्तियोंका महत्वपूर्णगुण है वाणी और वर्तनमें साम्य जो अपने वचनका मूल्य स्वयं नही निभाता उसके वचनोंको औरोंके सामने भी निरर्थकता निर्माल्यता धरनी पड़ती है पू. गुरुदेवकी वाणी अमूल्य थी उन्हें वचनगुप्तिका महत्व अतीव था। वचनपालनके लिए वे दृढ़ निश्चयी थे और शिष्य परिवारसे भी वैसी ही अपेक्षा रखते हुए एकबार अपने प्रिय प्रशिष्य श्री हर्ष विजयजी म. कोभी टोक दिया था। "यदि आपको नहीं जाना था, तब बोलने के पहले विचार क्यों नहीं किया ? जो बोलो वह तोलकर बोलो अब घोघा श्रावकोंको वचन दे चुके हों तो उसका पालन करना ही होगा। यदि तुम स्वयं ही अपने वचनोंका मूल्य न जानोगे तो दूसरे भी फूटी कौडीकी किंमत न रखेंगे ।" और श्री हर्ष विजयजीको घोघा जाना ही पड़ा-वचन पालनके लिए।
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आप जानते भी थे और मानते भी थे मौनकी शक्ति इसलिए उनका प्रत्येक वचन प्रभावपूर्ण, प्रतिभाशाली और प्रतापी वर्चस्वयुक्त था। वचन सिद्धि उनके चरण चूमती थी उनकी वाणीसे मानो अमृत रसकी बूंदें टपकती थीं, जिनका पान श्रोताको अमर आत्मानंद प्राप्त करवाता था। गरिमामयी गिरा आपके अनुपम गौरवान्वित व्यकतित्वको अलंकृत करती थीं।
'समयं मा पमायं-प्रमादका आपके जीवनके किसी कोने में, कहीं परभी, कोई स्थान न था। आपके जीवनका एक एक पल अनमोल था। प्रत्येक समयके लिए कुछ कार्य और प्रत्येक कार्यके लिए समय निश्चित रहता था। यहाँ तक की आराम आहार-निहार सभीके लिए निश्चित समय था । और
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