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________________ भी जो प्रेरणायें आपके प्रवचनोंमें बार-बार होती रहती थी-ये आपके इसी दूरदर्शीपने के गुणसे उद्भवित होती मालूम पड़ती है जिसकी महती आवश्यकता आज सवासौ सालके बादभी हम महसूस करते हैं। संयम प्रदान करने में भी जो कुशलता आपने अपनायी थी-व्यक्तिकी योग्यायोग्यताकी परख कर लेने के बाद ही योग्य व्यक्तिको ही दीक्षा-प्रदान करने की प्रणालिका अपनायी, वह वर्तमान युगमें कितनी आवश्क है उसका अनुभव समाज हितैषी प्रत्येक व्यक्ति कर रहा है। फिलहाल साधु जीवन के शिथिलाचार, मिथ्या-पाखंड़ादि देखते हुए प्रतीत होता है कि योग्यायोग्यके बिना परीक्षण, शिष्य परिवारवृद्धिके ही एक लक्ष्यसे दी जानेवाली दीक्षायें ही कारणभूत है। यही कारण है कि आपकी अपनायी दीक्षा-प्रदान-प्रणालीका से व्यूत्पन्न आपका विशाल शिष्यवृंद आत्मार्थी-समाजोपकारी अर्थात् स्व-पर कल्यणार्थी था और है भी। इससे भी एक कदम आगे बढ़कर दीक्षोपरान्त शिष्य समुदायकी समुचित एवं सर्वांगिण विकासलक्षी कार्यशीलताके लिए आप सदैव तत्पर रहते थे। जैन साध्वाचारकी सच्ची प्रतिष्ठाके प्रणेता, अनुशासन प्रिय, इस सूरिराजने जरा-सी भी शिथिलता या असावधता होने पर शिष्योंकों प्रायश्चित्त रूप दंड़ दिया था। गुर्वाज्ञा भंग करनेवालेको कड़े शब्दोमें फटकार दिया था। साधु जीवनोचित स्वावलंबनमें बेदरकारको-अन्य पर पराधीन रहनेवाले शिष्योंकी भर्त्सना होती थी। साधुओंके, साध्वीगण या श्राविकाओं के साथ परिहासजनक या बेमर्याद बातें या अनुचित वर्ताव पर कड़ी चेतावनी और सख्त प्रायश्चित्त दिया जाता था। गुरुमाताके रूपमें--प्रतिदिन शिष्य परिवारको नियमित धर्म शिक्षण देते थे, तो ज्ञान वृद्धिके लिए स्वानुभूत तथ्यों की एवं सत्योंकी गोष्ठि करते थे। कभी धार्मिक-सैद्धान्तिक-दार्शनिक चर्यायें होती रहती थीं तो कभी सामान्य जीवन प्रसंगोंमें से आध्यात्मिक शैलीसे परामर्श करते थे। जैसे “एकबार एक गाँवमें कहीं पर प्रासुक जल पीने के लिए न मिला। तब साधुओंने छाछ प्राप्तिके लिए प्रयत्न किये लेकिन वह भी नसीब न हुई। इतने में निराशाकी बदली हटानेवाले आशारूप सूर्य सदृश किसी वृद्धने उस गाँवके मुख्य जमींदारका घर निर्दिष्ट किया। सभीने वहाँसे यथावश्क छाछ प्राप्त की।" इस प्रसंग पर परमार्थ निकालते हुए आपने साधु मंडलीको कहा कि गाँवके सभी घरोंमें छाछ थी, लेकिन वह मुखिया हीरासिंगके घरसे लायी हुई थीं, जिसमें सभीने आवश्यकतानुसार पानी मिलाया था, इसलिए किसीने छाछ नहीं दी। लेकिन हीरासिंगके घर उसकी अपनी ही छाछ थी इसलिए वह निर्भेल और प्रचूर मात्रामें थी। यही कारण था कि हीरसिंगने सबकी तृप्ति हो जाय उतनी छाछ दी। परमार्थ-यहाँ हीरासिंगकी छाछ यह जैन दर्शन और गाँवके घर-यह अन्य दर्शन समझें। जैन दर्शनके ही विविध नय रूप कुछ कुछ सिद्धान्तोंको स्वीकार करके और उसमें अपना (पानी) कुछ नमक-मिर्च मिलाकर मनघडंत सिद्धान्त बने जो एकान्तवादका पानी मिलनेसे दीर्घकालीन नहीं बने। उदित होकर, थोडे समय फैलकर, विस्मृतिके गर्भमें चले जाते हैं। और जैन दर्शन अपने निजी सिद्धान्तोंके कारण और परिपूर्ण-छलाछल-भरपूर होनेके कारण वह चिरंजीव है-अनादि अनंतकाल (77 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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