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मोक्षमार्गका साध्य माना है। इसे श्रद्धेय सुरीश्वरजीने कैसे ग्रंथन किया है-दृष्टव्य हैस. दर्शन- “सम्यग् दर्शन पूज ले जिम मिटे मन झोला
मल उपशम, खय उपशमे, खयसे दृग खोला। त्रिविध भंग सम दर्शने, जिनवर इम बोला । । ....'
"" (५०)
स. ज्ञान- “ सबमें ज्ञानवंत वड़वीर, काटे सकलं कर्म जंजीर.....
“ज्ञान सुंहकर चिद्धन संगी, सप्तभंगी मत सारे रे.... शुद्धज्ञान मिथ्यात्व मिटेसे ज्ञानावरण विड़ारे रे........ गुरु सेवासे योग्यता प्रगटे, हेय उपादेय कारे रे..... ज्ञेय अनंत स्वरूपे भासे, दीप तिमिर जिम टारे रे........ नित्यानित्य नाश-विनाशी, भेदाभेद अभंगी रे..... एक अनेक ही रूपी अरूपी, स्याद्वाद नय संगी रे..... संशय सर्व ही दूर निवारे, आतम सम रस चंगी रे.....” (५१)
स. चारित्र
“चय ते अष्ट कर्मका संशय, रिक्त करे सब थाना रे
चारित्र नाम निर्युक्तिए भाष्यो, ते बंदु गुण ठाना रे चारित्र मुज मन माना रे, भाविका.......”(५२) ऐसे ही षट्द्रव्य, कर्मविज्ञान, अष्ट-प्रवचन-माता, सामायिक, आदि अनेकानेक अध्यात्मके रहस्यमयी तत्त्वोंको सरल-सांकेतिक फिरभी भावपूर्ण कविता सरितामें बहाकर आत्मशीतलताके लाजवाब असबाब उपलब्ध करवाये है। "पंच समिति तीन गुप्ति परे नित, निशदिन धरत विराग.....
(५३)
अतः निष्कर्ष रूपमें हम देख एवं सिद्धान्तोंको भी छंदोबद्ध करके अंकित किया है।
चार प्रमाण द्रव्य षट् माने, नव-तत्त्व दिलमें चिराग... सामायिक नवद्वार विचारी, निज सत्ताको विभाग....(५ सकते हैं कि अध्यात्मके अवधु श्री आत्मानंदजी म.ने आराधना साधना संगीतकी स्वर लहरियोंके साथ असाधारण कलात्मक काव्य रूपोंमें
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उपदेश रहस्य:- जिनके व्यक्तित्व में अद्भूत सुधारकता, शुद्ध संयमकी प्रतिभा और प्रताप दृढ निश्चयी मनोबल एवं भगवान श्री महावीरके प्रति सच्ची- -शुद्ध श्रद्धा छलकती हों: जिनशासनके संरक्षण और संगठनके लिए शांत-सात्त्विक अहिंसक रूपसे सत्यके प्रचार- प्रसारका उदात्त आग्रह हों; वर्णभेद-वर्गभेद और जातिभेदसे नितान्त दूर सवि जीव करूं शासन रसीकी सद्भावनाके रंग छाये हों, ऐसे क्रान्तिकारी युगनिर्माताका यह सहज स्वभाव ही बन जाय कि वह अन्यको प्रेरणा करें, प्रोत्साहित करें, उपदेश द्वारा उत्तेजित करें, निजात्म व परात्म-कल्याणके राह पर कदम बढानेको तो उसमें आश्चर्य ही क्या ! संगदिलोंको सहृदयी बनानेके लिए, कर्माधीन जीवोंके उद्धारके लिए जिन शासनकी सेवा के लिए जिन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया: आजीवन जिसने जनजनकी जीव मात्रकी हितचितामें ही अपनी सर्वतोमुखी शक्ति लगा दी - ऐसे परमोकारी, विरल विभूतिने अपने अक्षरदेहसे भी अधिकांश रूपमें जिनशासनकी वैसी ही खिदमत संतति कभी भूला नहीं सकती।
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की जिसे भावि
इनकी एक पद्य कृतिका नामाभिधान ही 'उपदेश बावनी' है जो आपकी सर्व प्रथम रचना है और जिसमें भाविकोंको देव - गुरुका स्वरूप परिचय कराते हुए धर्मतत्त्वकी आराधना साधनाका उपदेश दिया है“थोरे सुख काज मूढ़ हारत अमर राज करत अकाज जाने लेयुं जग लुंटके। कुटुंबके काज करे आतम अकाज सारे, लछी जोर, चोर हरे, मरे शीर फुटके । करम सनेह जोर, ममता मगन भोर, प्यारे चले छोर जोर रोवे शीर कुटके ।
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नरको जनम पाय, वीरथा गमाय ताह, भूले सुखराह, छले रीते हाथ उठके ।। " ५४
सर्वश्रेष्ठ रिद्धि समृद्धि एवं भौतिक सुखके भोक्ता, देवलोकके देवको भी वांछनीय ऐसे मानव भवको
पाकर मनुष्यको क्या करना चाहिए इसे दर्शाते हुए कहते है
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“देवता प्रयास करे, नरभव कुल खरें, सम्यक् श्रद्धान धरे तन सुख कार रे । करण अखंड पाय, दीरघ सुहात आय; सुगुरु संजोग थाय, वाणी सुधा धार रे। तत्त्व परतीत लाय, संजम रतन पाय, आतम सरूप धाय, धीरज अपार रे। करत सुप्यार लाल, छोर जग भ्रमजाल, मान मीत जितकाल, वृथा मत हार रे। ” ५५
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