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संधान किया वे परमार्थके लिए पेश भी किया। इस आध्यात्मिकताके गहन-गंभीर अनुभूत सत्योंको विशेष रूपसे आपने गद्यमें निरूपित किया है, लेकिन, आचार्य प्रवरश्री दार्शनिक होने पर भी कला-रसिक आत्मा थे-जन्मजात कलाकार-कवि थे; अतः क्लिष्ट-गूढ दार्शनिकताको भी अप्रतिम भावधारामें-काव्यरूपोमें-सजाकार प्रवाहित किया है।
जैन दर्शनका सैद्धान्तिक हार्द, स्याद्वाद एवं अनेकान्तवादमें निहित है, जिससे विश्वके सर्व दर्शनोंके सिद्धान्तोंको 'स्यात् की सप्तभंगी एवं प्रमाण-नयादिके सहारे सहज रूपमें ही समन्वित कर सकते हैं। क्योंकि प्रत्येक दार्शनिक धाराके विभिन्न सिद्धान्त एकांगी प्ररूपणा रूप होनेसे एक-दूसरेसे परस्पर व्याघात पाते हैं। इसलिए उन मतोंको “अज्ञान अंधकार” कहकर जैन दर्शनने अपने ‘स्याद्वाद सूर्य से उसे कैसे नष्ट किया, उसे वर्णित करते हुए जो चित्र खिंचा है- “प्रवचन अमृत रस भरी ध्याने, चिद्घन रंग रंगील रे।
कुमति जाल सब छिनकर्मे जारे, प्रगटे अनुभव लील रे।। तीनसो साठ तीन मतधारी, जगमें तिमिर अज्ञान रे... जयो जिनवचन सूर तमनाशक, भासक अमल निधान रे..... सप्तभंगी नय सप्त सुंहकर, युक्तमान दोय सार रे।
षड्भंगी उत्सर्गादिककी, अड़ पक्ष सम्यक् कार रे..... प्रवचन पद भवपार उतारे” (४४) __ इसी तथ्यको अन्य रूपमें भी प्रस्तुत किया है-स्याद्वाद-वनराज, दुर्नय-स्यारवृंदको अपने दर्शन मात्रसे ही कैसे पलक झपकते भगा देते हैं इस चित्रको देखें
“स्याद्वाद नयपंथमें, पंचानन बलपूर; दुर्नयवादी वृंदको, करे छिनकमें दूर" (४५) ___ इस रहस्यको प्रकट करनेके पश्चात् अपनी काव्य धाराको आगे बढ़ाते हुए उत्कृष्ट जैन दर्शनकी विशिष्टताको वर्णित करते हुए इन्होंने जिक्र किया है कि, एक जैन दर्शनकी ही देन है कि वह स्याद्वादके सहारे अन्य सबके साथ (इतर दार्शनिक सिद्धान्तोंके साथ) समन्वय कर सकता है। द्वैतवादी अद्वैतवादीसे टकराता है, तो निर्गुण-सगुणका उपहास करता है; चार्वाक आत्माका मूल ही उखाड़ फेंकता है, तो वेदान्तीकी उधेड़बून विचित्र ही है। इन विभिन्न दर्शनोंका समन्वय जैन दर्शनमें प्राप्त होता है-यथादो विरोधी सगुण-निर्गुण भगवद् रूपोंको समन्वित करके समुच्चय रूपमें जैनधर्म स्वीकारता है। श्री अरिहंत सगुण रूपका और श्री सिद्ध भगवंत निर्गुण ब्रह्म स्वरूपका प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसे श्री महामंत्र नमस्कारमें देव तत्त्व स्वरूपमें 'नमो अरिहंताणं: नमो सिद्धाणं'-रूपमें दोनोंको नमस्कार किये हैं ।
इसे ही कविश्रेष्ठने बखुबी अपने काव्यमें भी अभिव्यक्ति दी है . सगुण रूप- “अरिहंत पद मनरंग चिदानंद अरिहंत पद मनरंग
चिदानंद घन मंगल रूपी, मिथ्या तिमिर दिणंद; चौंतीस अतिशय, पैंतीसवाणी, गुण बारे सुखकंद........ चार निक्षेप रूप जग रंजन, भंजन करम नरिंद; ज्ञायक नायक शुभगतिदायक, तुं जिन चिद्घन वृंद..” (४६) निर्गुण रूप- “सिद्ध अचल आनंदी रे, ज्योतिमें ज्योति मिली। अज अलख अमूरति रे, निज गुण रंग रली। शिव अजर अनंगी रे, करम को कंद दली।।........
नभ एक प्रदेशे रे, सब सुख पुंज भिलि। बंधन छेद असंगा रे, पूर्व प्रयोग फली।.....” (४७) देव-गुरु-धर्म-जैनदर्शनकी इस तत्त्तत्रयीको परस्पराश्रयी दिखाकर उनकी साधनाकी ओर संकेत किया है“दर्शन विना ज्ञान नहीं भविकुं, मानो तो सही; विना ज्ञानके चरण न होवे, जानो तो सही । मिट गई अनादि पीर, चिदानंद जागो तो सही; साध्य दृष्ट सर्व करणी कारण धारो तो सही" (४८) जैन दर्शनके प्राणाधार 'नवपद'का स्वरूप और कार्यका वर्णन करते हैं -
“अखिल वस्तु विकासन भास्कर, मदन मोह तमस्सु विनाशकम्;
नवपदावलिनाम सुभक्तितः शुचिमना प्रजयामि विशुद्धये।।" (४५) सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान, सम्यग्-चारित्र रूपी रत्नत्रयीको ही जैनदर्शनमें मोक्षमार्ग, मोक्षमार्गके साधन और
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