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________________ परापूर्वताका निर्णय करवाया, तो ईसाइयोंकी धर्मपुस्तकोंके समीक्षात्मक अवलोकनको प्रस्तुत करके मानवधर्मके सामने अहिंसा परमोधर्म-जनसेवाके प्रत्युत जीवमात्रकी सेवाके अभिगमको प्रदर्शित करके जैनधर्मकी श्रेष्ठता एवं उपयोगिताको सिद्ध किया है । सहज अज्ञानी, बालजीवों एवं नूतन शिक्षा प्राप्त धार्मिक गुमराहोंके रहनुमा समकक्ष रचनायें-“जैनधर्म स्वरूप”, “जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर" आदिके साथसाथ अपूर्व-अनन्य एवं विस्मयकारी; अनूठी ऐतिहासिक कलाकृतिके आदर्शरूप “जैन-मत-वृक्ष"(वृक्षाकार)के आलेखनसे अनेक कलाविदों, साहित्यिकों, इतिहासकारों, दार्शनिकों एवं धार्मिक जिज्ञासुओं-सर्वको आश्चर्यके उदधिमें गोते लगवाये हैं । इस प्रकार उनकी प्रत्येक रचनाओंका अपना स्वतंत्र, अजीबो-गरीब-अनूठा महत्त्व स्वयं ही निखरता है । पद्य साहित्य और उसका प्रभाव :- काव्य सरिताके छंदोबद्ध ताल-लययुक्त वेगवान प्रवाहमें मस्त, अलंकरण और भाव लालित्यसे सुशोभित नैसर्गिक रस माधुर्यसे छलकते हृदयकी उर्मियोंकी अनिर्वाच्य सुखानुभूति प्राप्त, सहज काव्यकृतिकी रचना जन्मजात काव्य प्रसादीसे लब्ध कविकी देन होती है। जिनके गायक और श्रोताका अवगाहन उनकी अंतरात्माको विकस्वर कर देता है-उनका रोमरोम पुलकित होकर डोलने लगता है । श्री आत्मानंदजीम.की मर्मस्पर्शी, गेय काव्य रचनाओमें हमें ऐसे ही नैसर्गिक, रससिद्ध एवं अंतरोर्मियोंकी तरोंगोंको बहानेवाले कविके, दुन्यवी भावोंको भूलाकर अध्यात्मके रस समुद्रमें निमज्जन करवानेमें समर्थ, कवनोंका मंत्रमुग्ध स्वरूप प्राप्त होता है । उन्हें एकबार सुन लेनेके पश्चात् बारबार सुननेको जी ललचाता है, या उनकी पुनरावृत्तिमें ही निजानंदकी उदात्त मस्तीके पूर बहते हैं; जैसे, राग-पीलूकी मनमोहक और आत्मिक केफ चढ़ानेवाली रचना जितनी बार पढ़ें, एक नयी सुवास प्रदान करती है-मानों यथार्थ रूपसे हमारी कलूषितता समाप्त हो रही हों और हमें पावनताका स्पर्श प्राप्त हो रहा हो “जिनवर मंदिरमें महमहती, दश दिग् सुगंध पूरे रे, आतम धूप पूजन भविजनके, करम दुर्गधने चूरे रे.... भाविका, धूप पूजा अध चूरे......." ७. सहजानंदके असाधारण शांतरस-पूंजसे व्याप्त पद्योंका अनुभव भावकके अंतरको स्वयं प्रकाशसे प्रकाशित करनेवाला उनका पद्य साहित्य, प्रबन्ध काव्य स्वरूप-खंडकाव्य श्रेणीके पूजाकाव्योंके रूपमें और मुक्तक काव्यरूप- उपदेशबावनी', 'ध्यान शतक'का पद्यानुवाद 'बारह भावना स्वरूप' आदि रचनाओमें विविध मुक्तकछंदबद्ध काव्य एवं भाव प्रगीत काव्यरूपोंके अंतर्गत स्तवन, सज्झाय, पदादिके संग्रहरूप 'आत्म विलास स्तवनावली' 'चौबीस जिन स्तवनावली आदि प्राप्त होते हैं । जिनमें उनके जनकल्याणकारी, मानव हितेच्छुक, उपदेशक व्यक्तित्वके दर्शन होते हैं तो पूजा काव्योमें एवं प्रगीत काव्यरूपोंमें उनका काव्यत्व संगीतके सान्निध्यसे अनूठे भक्त हृदयके रंगकी इन्द्रधनुषी आभाको प्रदर्शित करता है । शृंगाररसके काव्योंकी लौकिक मस्ती या खुमारी कुछ भिन्न स्तर और भिन्न स्वाद युक्त होती है, लेकिन, सांसारिक मोहजालको समाप्त करवानेकी सहजशक्ति, साम्प्रदायिकतादि अनेक गरल प्रभावोंसे मुक्त केवल सत्यानुसंधान दृष्टिसे आत्म रमणताकी अनुभूतिसे प्राप्त होती है । जिसका आनंदानुभव श्री आत्मानंदजीम.के, अपूर्व शांतिपूर्ण भावोंका आत्मसम्मुख मोडनेवाले, काव्योमें प्रचुरमात्रामें सम्मिलित है; क्योंकि, अंतरकी गहराईसे बहनेवाले आत्मिक रहस्यमय उनके काव्योंसे निष्पन्न स्वर लहरी केवल “मनमर्कटकुं शिखो, निजघर आवेजी...." अथवा "एक प्रभुजीके चरण शरणां, भ्रान्ति भांजी कल्पुं.....", “आप चलत हो मोक्ष नगरे, मुझको राह बता जा रे.....", ".....कर करुणा अर्हन् जगइंद", “किरपा करो जो मुझ भणी, थाये पूरण ब्रह्म प्रकाशजी..... आदिका ही गुंजन करती रहती है । इसे आप अकेले गायें या समूहमें उसका हृदयस्पर्शी गुंजारव कर्णयुग्मोंको सदैव आत्मरमणतामें निमज्जन करवाता है । उनके काव्योमें प्रयुक्त सरल-सहज-सामान्य शब्दों द्वारा, स्वयंकी लघुलाघवी काव्यकलाके प्रभावसे असाधारण मधुरता और साहित्यिक श्रेष्ठता सम्पन्न आंतर्वेदना और साध्य निकटताकी प्रतीति होती है | कहीं पर भी रसक्षति या लघु पार्थिवताका प्रवेश तक (165) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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