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आंतरवैभवमें भी दोंनोंकी साम्यता दृष्टव्य है । परोपकार-दया-करुणादि सद्भावनाओंके कारण दयानंदजीने मानवकल्याण, मानवसहानुभूति और मानवसेवाको प्रदर्शित भी की और प्रसारित भी । जिनके कारण समाजकें दीन-हीन और पीड़ितोंको विशेष रूपसे देवसमान उद्धारककी प्राप्ति हुई। जबकि 'अहिंसा परमोधर्म जो हार्दको समेटे हुए श्री जैनधर्मके सच्चे प्रचारककी तो प्रत्येक सांसमें इन्हीं भावोंके सूर बजते रहते थे।(१३) दोनोंने समाजके अज्ञानांधकारको दूर किया और विशिष्ट लोकक्रान्तिकी ज्वाला प्रज्वलित करके समाजमें नव जागृतिका शंख फूंका, जिससे परापूर्वकी रूढि परंपरा और अंध विश्वासादिको भगानेमें प्रवृत्त उनको आजीवन कष्टप्रदायि अनेक प्रतिकारोंसे टक्कर लेनी पड़ी। (१४) दोनोंने जन साधारणकी भाषा हिन्दीमें ही अपनी प्रतिबोधात्मक उपदेशधाराको सभा और साहित्यके माध्यमसे भाविक जिज्ञासु भक्तों तक पहुँचायी। संस्कृत-प्राकृतके उत्तम विद्वद्वर्यों द्वारा सुविधाजनक लोककल्याणका ध्येय रखकर ही बोल-चालकी भाषाका प्रयोग किया गया।(१५) आजीवन अत्यन्त कड़े पुरुषार्थानन्तर भी, अनुपयुक्त-उलटे संस्कार बीज वपनके फलस्वरूप-श्री दयानंदजीको मानवभव साफल्यरूप चरम सत्यकी प्राप्ति न हो सकी, न दार्शनिक और सैद्धान्तिक विचारधाराओंके प्रवाहको निश्चित दिशा प्राप्त हो सकी। ईश्वरके जगत्कर्तुत्व या सृष्टि सर्जनकी प्रक्रियामें विभिन्न सहयोगी कारणों (उपादान-निमित्त-साधारण) अथवा मोक्ष विषयक धारणायें भी स्थिरत्व धारण न कर सकीं-यथा-“सत्यार्थ प्रकाशके प्रथम संस्करणके लिखे जाने तक स्वामीजीको जीवकी उत्पत्ति तथा उसका अत्यन्त प्रलयमें विनाश मान्य था। कालान्तरमें वे ईश्वर, जीव तथा सृष्टिकी उपादानभूत प्रकृतिको अनादि और अनश्वर मानने लगे। यह तो स्पष्ट ही है कि मुक्तिसे पुनरावृत्तिकी धारणा स्वामीजी द्वारा बहुत बादमें स्वीकार की गई थी ९१. इससे हम यह कह सकते हैं कि स्वामीजीके मंतव्य परिवर्तनशील थे। अतः । तो वे स्वयं सर्वज्ञ थे, न सर्वज्ञके पथके पथिक ही थे जिसका उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था-“इतना लक्षमें रखना कि मेरा कोई स्वतंत्र मत नहीं है, और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूँ। यदि मेरी कोई गलती पायी जाय तो युक्तिपूर्वक परीक्षा करके उसको सुधार लेना"।१२. जबकि श्रीआत्मानंदजी म.सा. जबसे सत्य संविज्ञ मार्गी-सर्वज्ञके पथके पथिक-हुए है उनके वाणी विलास या वाड्.मयमें कहीं परभी असंवादिता अथवा पूर्वापर विरोध दृष्टिगोचर नहीं होता। न उन्हें अपने सैद्धान्तिक खयालोंमें किसी प्रकारके परिवर्तनकी आवश्यकता ही हुई है।(१६) उनकी मोक्षविषयक प्ररूपणा-जो नवम समुल्लासमें की गयी है- वह सोचनीय है। इसकी विस्तृत विश्लेषणात्मक समीक्षा करते हुए श्रीआत्मानंदजी म.सा.अपने 'अज्ञान-तिमिर-भास्कर'-प्रथम खंडमें उनके परस्पर विरोधी-असमंजसकारी प्रलापों और मुहुर्मुहुर्परिवर्तनशील विचारधाराओंका स्पष्टीकरण किया है-“दयानंदजी वेदोंकी संहिता और ईशावास्योपनिषदके अतिरिक्त वेदोंके ब्राह्मण आरण्यक आदि वैदिक ग्रन्थोंको प्रमाणिक नहीं मानते हैं। लेकिन 'सत्यार्थप्रकाश' और वेद भाष्य भूमिकादिमें शतपथ-ऐतरेय-तैतरेयादि ब्राह्मणआरण्यक-निघंटु-निरुक्तादिके प्रमाण लिखते हैं और मुक्ति विषयक भी परस्पर विरोधी विभिन्न प्ररूपणाओंके प्रमाण लिखकर अपने बावलेपन या उन्मादको ही प्रकट किया है। (५३) महर्षि दयानंदजीमें अन्यको नीचा दिखानेवाले
पर युक्त अक्खड़पन और रूखापन उनके वाणी-विचार (प्रवचन एवं साहित्य)से झलकता है। जबकि श्री आत्मानंदजी म.सा.निरभिमानी, सरल, अन्यके प्रति सराहनीय गुणानुरागितादि गुणोपेत थे। फलतः श्रीदयानंदजीने अपनी उछंखलताकी परिचायक वृत्ति धर्मशास्त्रके मूलरूपमें वेदको निर्धारित करके वेदके मनभावन अर्थघटन करके वेदभाष्य रचकर प्रदर्शित की: जबकि श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने अपनी प्रत्येक कृतिमें पूर्वाचार्योंके संदर्भोको निरंतर अपने नयनपथ पर रखा है, और उसकी परिपुष्टिकी ओर ही पुरुषार्थ किया, तदपि बारबार उन पूर्वाचार्योंके आशय विरुद्ध-अज्ञानतावश हुई किचित् अशुद्धि या त्रुटिके लिए 'मिथ्या दुष्कृत' याचनापूर्वक नम्रतासे क्षमा-प्रार्थना की है।(१८)दोनोंके वेश विन्यास जैसे भिन्न थे, वैसे ही वैचारिक विभिन्नता भी स्पष्ट दर्शित होती है। वैदिक धर्मके ध्वजधारीको प्रतिमा-पूजन-प्रतिरोध करके वेद और एक ईश्वर द्वारा हिंदु संगठन और सामर्थ्यशाली जोश प्रकट करवानेकी ख्वाहिश थी तो श्वे. मू.पू.भेखधारीको जैनजातीके परापूर्वाधारित, प्राचीन और शास्त्रोक्त प्रतिमापूजनके गौरवको प्रतिष्ठित कर के उसे प्रचारित करनेकी उम्मीद थी।(१९)
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