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स्वयं नैसर्गिक रूपसे शारीरिक सुदृढ गठन और बलिष्ठ देह सामर्थ्य प्राप्त की थी। (४) दोनों आजीवन भीष्म ब्रह्मचर्यचारी थे, फलतः दोनोंके मुखारविंद पर त्रिविध-विविध ब्रह्मचर्यका देदीप्यमान तेज
था । (५) दोनोंने बाल्यकालमें ही सांसारिक मोह बंधनोसे मुक्त होकर स्व पर आत्म कल्याणकारी साधुत्वको प्रश्रय दिया था। यह बात अवश्य है कि श्री दयानंदजीने माता-पिता परिवारादिके खिलाफ सभीके भयंकर विरोधमें भी घरसे भागकर संन्यास लिया । यहाँ तक कि तलाश करके, उन्हें ढूंढ निकालनेमें सफल पिता द्वारा चौकी पहरे लगाकर उनको घर वापस ले जानेके प्रयासको चकमा देकर निष्फल बनाकर उस फंदेको तोड़कर दुबारा भाग गये जबकि श्रीआत्मानंदजी म. सा. ने दीक्षाका विरोध करनेवाले परिवार ममतामयी माता और पालक पिता जोधाशाहजीको अपने उत्कट वैराग्य भावसे अवगत करवाके, युक्ति-प्रयुक्तियोंसे उन्हें समझाकर आश्वस्त किया और उनकी हार्दिक सर्व सम्मति पूर्वक अंतराशिषोंके साथ जैन साधुत्व अंगीकार किया । प्रायः यही कारण हो सकता है कि सभीको दुःखित करके संन्यास धरनेवाले श्री दयानंदजीको आजीवन अनेक भयंकर कष्टोंका, जीवलेवा विकट परिस्थितियोंका सामना करना पड़ा: घोर वनों जंगलोंमें भटकना पड़ा और हिमाद्रिकी बर्फिली पहाड़ियोंमें शरीरको गालना पड़ा भूख-प्यास, सर्दी गरमी सब कुछ सहा, इतने पर भी सत्यमार्गके तलाशनेवाले ये महर्षि मानव जीवनके साफल्यरूप चरम सत्य - आत्मापरमात्मा और संसार मुक्ति एवं कर्म-धर्मके विषदोहन और अमृत आस्वादनका लाभ प्राप्त न कर सकें। जबकि श्रीआत्मानंदजी म. को स्वजन-परिजनोंके स्नेहासिक हार्दिक आशीर्वादोंके संगीन पीठबलने उनके जीवनराहकी प्रत्येक इगरको अति उज्ज्वल बनाया। जीवनोद्यानके (स्थानकवासी मत स्वीकार रूप ) शूल भी फूल (संविज्ञ मार्ग प्राप्ति रूप) बने प्रत्येक अवरोधके निरोधमें निष्कंटक सदैव सफल होकर सर्वोत्कृष्ट जीवनके अधिकारी बन सकें। (६) दोनोंको ज्ञानगंगाकी निर्मलधाराके अमृतपानकी अनमिट प्यास सदा बनी रही थी, जिसके लिए दोनोंने हिन्दुस्तानके कोनोंकी खाक छान ली थी। जीवंत सत्यकी प्राप्तिकी तलप सर्वदा बनी रहती थी। इन पुरुषार्थोंके परिणाम स्वरूप श्रीदयानंदजीको प्रज्ञाचक्षु श्रीविरचंदजी गुरुमुखसे वेद ज्ञान-नीरके प्रवाह में स्नान करनेका अवसर प्राप्त हुआ जबकि श्रीआत्मानंदजीको भी प्राज्ञ प्रातिभ श्रीरत्नचंद्रजी म. से आगमामृतमें निमज्जन करके अमरश्रुतकी विरासतकी उज्ज्वल आभासे आलोकित बननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ । (७) दोनोंने ज्ञान प्राप्तिमें आनेवाले अनेकविध कष्ट संकट-तकलीफों का मर्दानावार मुकाबला करके अपने लक्ष्य प्राप्तिकी और आगेकूच बनाये रखी। (८) दोनोंकी विलक्षण याददास्तके कारण उनके गुरुओने भी उन्हें दिल खोलकर ज्ञान-दान दिया। श्रीदयानंदजीको उनके गुरु द्वारा एक बार पाठको देनेके पश्चात् उन्हें दुबारा समझानेकी आवश्यकता नहीं हुई। उसी प्रकार श्रीआत्मानंदजी म.सा. ने भी प्रतिदिन ३५० श्लोक याद करके अत्यल्प समयमें समस्त तक आगम साहित्यको कंठस्थ कर लिया था। (१) दोनोंमें अनूठी प्रतिभा, अनुपम प्रताप और अतुल प्रभावके होते हुए भी दोनों स्वयंके गुरुके प्रति परिपूर्ण रूपसे समर्पित भक्तिभाव युक्त, विनम्र शिष्य थे । (१०) इसीसे प्रभावित होकर दोनोंके गुरुवर्योंने अंतिम आशीर्वचन रूप कुछ आदर्श फर्माये थे। यथा स्वामी श्रीवीरजानंदजीके शब्द थे- “बेटा आज हिन्दु जाति वेदोंके वास्तविक ज्ञानसे सर्वथा अनभिज्ञ हैं। मेरी यही गुरुदक्षिणा है कि तू संसारमें वेदोंके सत्यज्ञानका प्रचार कर हिन्दु समाजकी बुराइयोंको दूर कर दे और अपने जीवनको जातिकी सेवामें अर्पित कर दें। ८९ वैसे ही नवयुवान संयमी श्रीआत्मानंदजीको मुनि श्रीरत्नचंद्रजीने उपदेश दियाकि, “वत्स, आज साधु आगमोंका सच्चा अर्थ जनताको नहीं बताते। आगमोंमें मूर्तिपूजाका निषेध नहीं, विधान है।..... परंतु लोग आगमके उलटे-सीधे अर्थ करके सत्यताका लोप कर रहे हैं। तू स्वयं आगमों पर निष्पक्ष होकर विचार कर तथा जैन जातिको सच्चे धर्मसे आनाह करते हुए अपने कर्तव्यका पालन कर । १० इनसे स्पष्ट है कि दोनों महारथी- सत्यके मशालची सत्यकी नींव पर ही सुंदर प्रासाद निर्माणके लिए निर्भीक उल्लासके साथ कार्यान्वित हुए। ( ११ दोनोंका प्रचार क्षेत्र पंजाब ही रहा है। आज पंजाबमें आर्यसमाजकी अनेक शाखायें, स्कूल शिक्षा, आदि तथा अनेक नभचुंबी जिनमंदिरोंका निर्माण, सभाभवनों या आराधना भवनों आदिका निर्माण उन्हींकी देन है | ( १२ ) बाहय व्यक्तित्व सदृश उभयके
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