________________
निष्कर्ष रूपमें हम यह कह सकते हैं कि स्वाश्रित-अनुभवगम्य-निजानंदकी मस्त यौगिकता और विशुद्ध-निरुपाधिक-सादि अनंत भाववाले परमात्म प्रेमकी स्वर लहरियाँ छलकानेवाले अवधू श्री आनंदघनजीकी कृतियोंकी थाह पाना अथवा उसे कलमबद्ध करनेकी चेष्टा करना, यह समुद्रकी विशालताको बाँह फैलाकर प्रदर्शित करनेवाली बाल चेष्टा सदृश है; तो श्रीआत्मानंदजीके पांडित्यपूर्ण भक्तियोग अर्थात् ज्ञान और भक्तिका एक साथ-समान रूपसे समन्वय भी लेखिनीकी क्षमतासे परे ही है या केवल अनुभवगम्य ही है। इन दोनों साधकोंकी अध्यात्म योग युक्त आत्मिक खुमारीकी स्पर्शनाका संगीत कर्म और धर्म-परमात्म भक्ति और शक्ति-सिद्धान्त और साधनादि विभिन्न विषयोंको झंकृत कर गई हैं । श्रीचिदानंदजी म.सा. और श्रीआत्मानंदजी म.सा.:परिचय-संतजन व्यवहारातीत-धर्मातीत और साम्प्रदायिक सीमातीत होते हैं, साथ ही निःसंग, निर्लेप और निस्पृही-आत्मालीन आराधक, सिद्धिके साधक, और उत्कृष्ट उपासक; आत्मिक ज्ञान-ध्यान-कल्याणमें निमग्न होनेसे यह अति संभाव्य है कि, वे अपने बाह्य व्यक्तित्वकी पहचान, गच्छ या गुरु परंपराका इतिवृत्त या प्रशंसनीय प्रशस्तियोंसे ऊपर उठे हुए होते हैं । उनके चरण चिह्न होते हैं उनका वाङ्मय और उनकी परिचायक गुणगाथायें होती हैं, उनकी गीर्वाण गिरा-प्रवचनधारा या मधुर वाणी विलास । यहाँ एक ऐसे ही अध्यात्म प्रेमीका परिचय प्रस्तुत है । जीवन तथ्यः- मुनिराज श्रीकर्पूरविजयजीने, 'श्री चिदानंदजी (कर्पूरचंदजी) कृत संग्रह भा-२' की भूमिका; 'शासन प्रभावक श्रमण भगवंतो', संपा.श्रीनंदलाल देवलूकजी, पृ.२७०; और 'कलिकाल कल्पतरु',ले.श्रीजवाहरचंद्र पटनी पृ.२८३-इन सभी ग्रन्थोंके आधार पर हम श्रीचिदानंदजी म.के जीवन वृत्तांतको इस प्रकार आलेखित कर सकते हैं - "श्रीकपूरचंदजी अपरनाम श्री चिदानंदजी म. बीसवीं शताब्दीके प्रारम्भमें विद्यमान थे । श्रीआनंदघनजी म.की भाँति वे अध्यात्म शास्त्र रसिक और कुशल कविराज थे । वे महर्षि तीर्थस्थानोंमें सुविशेषतः निवास करते थे । श्रीशत्रुजय और श्रीगीरनार तीर्थकी कुछ, गुफायें और स्थान उनके नामसे अद्यावधि विख्यात हैं । उनका देहावसान श्री सम्मेत शिखरजी पर हुआ-ऐसी जनश्रुति है । वे एकाकी अवधूत अलिप्त रहना ही अधिक पसंद करते थे; और जहाँ तक हो सके लोक परिचयसे निवृत्त रहते थे । वे इतना सरल-अकिंचनसमलघुतामयी जीवन जीते थे कि किसीको उनके अत्यन्त उत्तम ज्ञान और सिद्धि सम्पन्नताका अहसास भी नहीं होता था । अगर काकतालीय न्यायसे अनायास ही किसीको ज्ञात हो जाय, तब वे उस स्थानको त्याग कर अन्यत्र विहार कर जाते थे । उनकी लघुताने मानो प्रभुताके उच्चतम शिखरको छू लिया था । उन मनमौजी अध्यात्म योगी महापुरुषका विहार स्थल गुजरात-महाराष्ट्र-मालवा-राजस्थान-यू.पी. बिहार-बंगाल-पावापुरी-समेत शिखरजी भारतभरके अन्य तीर्थस्थानोमें माना जाता है; तो वाराणसी आपका शिक्षा-स्थान माना जाता है । इस प्रकार उनके नश्वर देहका थोड़ा बहुत परिचय मिलता है।"
इसके अतिरिक्त उनके सम्बन्धमें अन्य संशोधनोंके आधार पर भी 'श्रीचिदानंद ग्रन्थावलि' पुस्तककी प्रस्तावना-पृ.७से१४में श्रीभंवरलालजी नाहटाने उनके जीवनकी विशिष्ट रूपरेखाका सहज भास दिया है, तदनुसार पालीतानामें प्रतिलिपित प्रतानुसार श्रीचिदानंदजी खरतर गच्छके चतुर्थ दादासाहब श्रीजिनचंद्र सूरिजीकी पट्ट परंपराके श्रीपूज्योंकी परंपराके उपाध्याय श्रीरामविजयजीकी परंपरामें काशीवाले श्रीनढ़ाजीके शिष्य चुनीजी म.के शिष्य श्रीकपूरचंदजी (कल्याण चारित्र) उपनाम-श्रीचिदानंदजी म.के नामसे प्रसिद्ध थे। तीनों-गुरु, शिष्य, प्रशिष्य-आदर्श, त्यागी, वैरागी और आत्मिक आराधक थे । इतनी सूक्ष्म गवेषणा और अन्वीक्षणके बावजूद भी, वे उनके जन्म स्थान, समय, नाम, वंश-कुलादि (गृहस्थावस्थाके) या दीक्षा स्थान-समय आदिके बोधसे अबोध ही रहे हैं । इनकी रचनाओंसे व्यक्त होनेवाली विद्वत्तासे इतना कह सकते हैं कि, वे दार्शनिक एवं आगमिक ज्ञानके गंभीर अध्येता और अध्यात्म-योगादिकी गहन साधनारत अलगारी आत्मा थे। अद्यावधि प्राप्त उनकी रचनाओंमें 'प्रश्नोत्तर माला'-वि.सं.१९०६-को अंतिम रचना मानी जा सकती है । क्योंकि उन्होंने अपनी जन्मादि घटना सदृश अपनी कृतियोंके आविर्भावको भी गुप्त रखना ही उचित
(141)
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org