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________________ “ मनडुं किम ही न बाजे, हो कुथुंजिन !... “ मनडुं दुराराध्य तें वश आण्णुं, ते आगमथी मति आणुं आनंदघन ! प्रभु ! माहरु आणो, तो साधुं करी जाणुं.... हो कुंथुं.... श्रीआत्मानंदजी म.सा. इस मनके वशमें आनेवाले आत्माने क्या क्या बरदास्त किया उसका चित्र उपस्थित करते हुए मनको शिक्षा देते हैं. 44 “ समझ समझ वश कर मन इंद्री, परगुण संगी न हो रे, सयाना.... इनहीके वश सुद्ध बुद्ध नासी, महानंद रूप भूलाता माच्यो पर गुन गाता.... वशकर....” सांग धार जग नटवत् नाच्यो, अन्य दर्शनकी मान्यता प्राप्त देव-देवीके विषयासक्त रूपका जो चित्रण उनके साहित्यमें मिलता है उनके प्रतिवाद रूप इन दोनों विद्वद्वयाने श्री अरिहंतके अधिकारी-निर्मल-त्रिभुवनमें उद्योतकारी, अद्वितीय एवं अनूठे रूप-स्वरूपका वर्णन किया है । श्रीआनंदघनजीके वामानंदन प्रभु पार्श्वनाथजी का वर्णन है “प्रभु तो सम अवर न कोई खलकमें । हरिहर ब्रह्मा विगते सोते, मदन जीत्यों तें पलकमें...... ज्यों जल जगमें अगन बूजावत, बडवानल सो पीये पलक में..... आनंदघन प्रभु ! वामाके नंदन, तेरी हाम न होत हलकमें.... प्रभु... १४६ श्री आत्मानंदजी म. श्रीमल्लिनाथ जिनेश्वरकी द्युति और कांतिको शब्द देह देते हैं- यथा “सुचि तनु कांति, टरी अघ भ्रान्ति मदन मर्यो तुम करम नीकंद । जयजय निर्मल अघहर ज्योति; द्योति त्रिभुवन निर्मल चंद .... मल्लि जिन ! दर्शन नयनानंद.... ४७ षड्दर्शनके प्राज्ञ साधकोंने जैन सिद्धान्तोंके प्रचार-प्रसारके लिए साहित्यको ही माध्यम बनाया था। जिसमें पूर्वाचार्योंकी विचारधारका भी उनको प्रचूर मात्रामें सहयोग रहा है। श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजीके जैन दर्शन समुद्र और इतर दर्शन नदियोंके रुपकको श्रीआनंदघनजी म. ने श्रीनमिनाथ भगवंतके स्तवनमें प्ररूपित करके षड्दर्शनके समन्वयको जिन दर्शनमें विशेषता जिनेश्वरके अंगरूप किसविध पेश किया है यह दृष्टव्य है - षड्दर्शन जिन अंग भणीजे, न्याय पढंग जो साधे रे नमि जिनवरना चरण उपासक, षड् दर्शन आराधे रे..... (यहाँ जिनेश्वरके दो पैर सांख्य और योग दो बाहु-सुगत और मीमांसक कृख लोकायतिक ( चार्वाक ) ओर मस्तक- जैनदर्शन रूप वर्णित करके) "जिनवरमा सघळां दरिसन से दरिसनमां जिनवर भजना रे; रखने हेतु गाते है Jain Education International सागरमा सघळी तटिनी सही, तटिनीमां सागर भजना रे; “ चूर्णि भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परंपर अनुभव रे; समय पुरुषनां अंग कयां ए, जे छेदे ते दुर्भव रे"... और अंतमें इस श्रद्धाको अचल “ते माटे ऊभो कर समय चरण सेवा शुद्ध देखो, उसी तरह श्रीआत्मानंदजी म.सा. भी जैन जोडी, जिनवर आगळ कहिये रे; जेम आनंदघन लहिये रे....४८ आदि) के लोपकको मनुष्यजन्म हारकर संसारकी ओर भागनेवाले दर्शाते हैं 4 “ समय सिद्धान्तना अंग साचा सबी, सुगुरु प्रसादथी पार पावे । दर्शन ज्ञान चरित करी संयुता, दाहकर कर्मको मोख जाये । ४५ '४४ दर्शनकी श्रद्धाको दृढीभूत करते हुए जैन पंचांगी (निर्युक्ति जैन पंचांगीकी रीति भांजी सबी, कुगुरु तरंग मन रंग भावे । ते नरा ज्ञानको अंश नहीं आपनो हार नर देह संसार धावे । १४९ 140 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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