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ॐ ह्रीं ॐ नमः
पर्व चतुर्थ श्री आत्मानंदजी म.की महान विभूतियोंसे तुलना
“जैनेन्द्र दर्शन समुद्रसुधाकराय । सिद्धान्तसार कमल-भमरोपमाय । अज्ञानसुप्तजन जागरणारुणाय ।
तुभ्यं नमो जिन भवोदधिशोषणाय ।" प्रास्ताविक-भारतीय संस्कृतिसे श्रेष्ठताकी सुवास इसलिए आती है कि उसमें आचारशुद्धि और चारित्र विशुद्धि द्वारा द्रव्य-क्षेत्र-भावादिकी पवित्रता और पात्रताके पुष्प गुच्छ प्राप्त होते हैं । राजकीय, सामाजिक एवं धार्मिक विषम परिस्थितियोंमें जैन धर्मगुरुओंने स्वकर्तव्यको निभाते हुए अपना करिश्मा दिखाया, जिसके अंतर्गत अन्य उपायोंके साथसाथ धर्मरक्षाके उपाय हेतु राज्यके कर्णधार-शासक राजवीओंके हृदय परिवर्तन करवाके उन्हें धार्मिकताकी ओर मोड़कर उनके अनेक प्रकारके जुल्मों-पीडन-शोषणादिसे प्रजाको बचाया । श्री हेमचंद्राचार्यजीने महाराजा कुमारपालको धार्मिक बनाया, तो युगप्रधानाचार्य श्रीविजय हीरसुरीश्वरजी म.की प्रतिभाके प्रभावने अकबर जैसे शहनशाहोंको यहाँ तक प्रभावित किया, कि सम्राटने सुरीश्वरजीको बहुमानपूर्वक आमंत्रित करके धर्मवाणी श्रवण करवानेके लिए विज्ञप्ति की । उनके धर्मोपदेश श्रवणके परिणाम स्वरूप भयंकर हिंसक-शिकारशौकिया-मांसाहारी, उस मुगल बादशाहने अपने राज्यमें विभिन्न पर्व दिनोंमें कुल मिलाकर वर्षमें छमासके लिए हिंसा पर सर्वथा पाबंदी लगायी और स्वयं भी मांसाहारका त्याग किया । 'जिजिया वेरा' आदि कर भी माफ करवाये (प्रभावक चरित्राधारित) ।
मुस्लिमोंके अनुवर्ति-ईसाइयोंने भी भारतीय संस्कृतिको उजाड़नेमें कोई कसर नहीं छोड़ी थी । वे तो मुस्लिमोंसे भी दो कदम आगे थे । मुस्लिमोंने केवल मंदिर तोड़े थे, मनको वे मोड़ नहीं सके थे; लेकिन ईसाइयोंने नूतन आविष्कारों और वैज्ञानिक शिक्षण पद्धतिके पर्देके पीछे अपनी नास्तिक संस्कृतिको उद्धारनेवाली शिक्षाको लादकर भारतीयोंकी आस्तिक और विनयप्रधान संस्कृतिके सर्वनाशके बीज जनमानसभूमिमें वपन करनेका प्रारम्भ किया, जिसके परिणाम स्वरूप भौतिकता युक्त नास्तिकताके घटाटोप वृक्षके विषैले फल अद्यावधि भारतीय प्रजा भोग रही है ।
श्री आत्मानंदजी म. के साहित्य पर अन्य साहित्यकारोंका प्रभावः-ऐसे अंधाधुंध मध्यकालमें भी जैन विद्वानों द्वारा साहित्य रचनाका प्रवाह रुका नहीं था । हाँ थोडा-सा अवरुद्ध अवश्य हुआ था उन दिनोंमें भी मृत्युको महोत्सव बनानेवाली जैनधर्म-संस्कृतिके आत्मिक ज्ञानके आलोकसे अद्भूत उज्ज्वलता प्राप्त साधु समाजने अपनी ज्ञान यात्राको निरंतर अग्रेसर रखा था । जैनधर्माधारित कथायें एवं अन्य साहित्यिक रचनायें दार्शनिक, सैद्धान्तिक एवं उपदेशादिको लक्षित किये हुए हैं । उसीके परिप्रेक्ष्यमें श्री दिनेशजी ने जो आक्षेप किये हैं-"उधर जैनधर्म पौराणिक आख्यानोंको नये ढुंगसे गढ़कर जनताको आस्था पर नया प्रभाव जमा रहा था । वैष्णवोंकी धार्मिक कथायें जैन कथायें बनती जा रहीं थीं ।"२ यह शायद उनके जैन साहित्यके परापूर्वकी श्रेष्ठ परम्पराकी अनभिज्ञताकी सूचक हैं । इस मान्यताको निराधार प्रमाणित करनेवाले अनेक प्रमाण विद्यमान हैं । यहाँ केवल "जैन रामायण' विषयक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं, जो कहानी बहुचर्चित एवं लोकप्रिय भी है । “जैन संस्कृति हिंदु संस्कृतिका विद्रोही बालक है-इस मान्यताके कारण जैन संस्कृतिके बारेमें जैनेतर विद्वानोंमें अज्ञान बढ़ता जा रहा है । आधुनिक अनुसंधानोंने इसे गलत सिद्ध करने पर भी जैन संस्कृतिकी उपेक्षा दूर नहीं हुई हैं..... हमें यह भी सोचना चाहिए कि, रामकथा केवल वैदिक परंपराकी ही मात्र कथा नहीं है..... जैन रामायणको समझनेके लिए आवश्यक धैर्यका अभाव और जैनधर्म विषयक अज्ञानके कारण ही उत्तेजना बढ़नेसे इसके अध्ययनकी उपेक्षा की जाती है ।"३ यहाँ इस
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