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________________ कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण और कुछ युक्तियुक्त तर्काधारित नीरसन किया है । इसके अतिरिक्त 'जैन-धर्म-विषयक प्रश्नोत्तर', 'ईसाई-मत-समीक्षा' आदि भी अनेकविध ऐतिहासिक तथ्योंसे सजे हुए ग्रन्थ हैं । इन ऐतिहासिक तथ्योंके उद्घाटन करनेवाली रचनाओंसे हमें तद्विषयक उनका अत्यन्त विशाल अध्ययन और मौलिक-विद्वत्तायुक्त चिंतनका एहसास मिलता है । युक्तियुक्त-शास्त्रीय-ऐतिहासिक प्रमाणोंकी टंकशाल तुल्य आचार्य प्रवरश्रीके सदृश शायद ही अन्य किसी व्यक्तिको हम ढूंढ सकें । श्री विनयचंदजीके शब्दोंमें -All his life he passed in doing service to the community by writing useful works, giving sermons, collecting manuscripts, studying scriptures and sacred books, ..... teaching his desciples and doing all he could do for the uplift and betterment of the society for which he dedicated his life. *** निष्कर्ष-(विविध विषयोंकी अभिज्ञता) इस प्रकार आचार्य प्रवरश्री आत्मानंदजीम.सा.के साहित्यका जैन समाज और जनसमाज अर्थात् समस्त संसारके जैनेतर जिज्ञासुओंकी दृष्टिसे अचिन्त्य-उपष्कृत निधिके रूपमें मूल्यांकन करते हुए हम कह सकते हैं कि उन्होंने जन जीवनोपयोगी विषयोंका चयन करके साहित्य रचा अथवा यह भी सत्य है कि उन्होंने जो कुछ भी रचनायें आगमाधारित या पूर्वाचार्योंके ग्रन्थाधारित की, वे जन जीवनको अनायास ही उपयोगी सिद्ध हुई हैं । क्योंकि, लोक जीवन स्पर्शी विविध विषयोंके प्रायः सर्वांगीण निरूपण करते हुए उससे उनका प्रतापी प्रभुत्व ही सिद्ध होता है । उनका प्रमुख प्रयोजन ही यही था कि जैन साहित्यका विविधरंगी और विविधलक्षी प्रकाश समस्त विश्वमें फैले और 'सवि जीव करूं शासन रसिक'की भावनाके साथ समस्त जीव जगत उससे लाभान्वित हों । अंतमें श्री पृथ्वीराजजीके शब्दोंमें-“यदि आप श्री आत्मानंदजी म.का वास्तविक रूप जानना चाहते हैं, उनकी अंतरात्माकी सच्ची और स्पष्ट झांकिका दर्शन करना चाहते हैं, तो वह आपको उनके ग्रंथोंमें ही हो सकते हैं..... विविध दृष्टिकोणसे उनका साहित्य पठनीय है । जैन आचार, जैन विचार, जैन इतिहास, जैन क्रियाकांड आदि सभी ज्ञातव्य विषयों पर उन्होंने तुलनात्मक प्रकाश डाला है । ..... जैन साहित्य रूपी गगनके प्रकाशमान नक्षत्रों में श्री आत्मारामजी म.का नाम अमर होगा ।७५ (118 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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