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इस तरह परम भक्त कविवर श्री परमात्माको इस भवोदधिसे तिरानेके लिए विनित प्रार्थना करते हुए उस भवोदधिका स्वरूप आलेखन भी करते हैं जिससे वे इर गये हैं, थक गये हैं और हार गए हैं -
“तम सुणियो जी, अजित जिनेश भवोदधि पार कीजोजी । जनम मरण जल फिरत अपारा, आदि अंत नहीं घोर अंधारा, हुं अनाथ उरझ्यो मझधारा, दुक मुझ पीर कीजोजी....तुम... कर्म पहार कठन दुःखदायी, नाब फसी अब कौन सहाई, पूर्ण दया सिंधु जगस्वामी, झटती उधार कीजोजी.....तुम.... करण पांच अति तस्कर भारे, धरम जहाज प्रीति कर फारे, राग फांस डारे गर मोरे, अब प्रभु झिरक दीजोजी.....तुम... तृष्णा तरंग चरी अति भारी, बहे जात सब जन तन धारी, मान फेन अति उमंग चढयो है, अब प्रभु शांत कीजोजी....तुम... लाख चउरासी भमर अति भारी,मांहि फस्यो हुं सुध बुध हारी काल अनंत अंत नहिं आयो,अब प्रभु काढ लीजोजी. तुम."चतु.जिन.स्त.२. अतः निष्कर्ष रूपमें हम यह कह सकते हैं कि, प्रतीक विधानमें जैसी सफलता कवीश्वर श्री आत्मानंदजी म.सा.ने पायी है वैसे ही वे बिम्बविधानको भी संप्रेषणीय एवं भावोत्तेजक रूपमें नियोजित करने में सिद्धहस्त कामयाबी हासिल कर सके हैं। ध्वन्यात्मकताः--- 'ध्वनि से प्रतिफलित भाव है ध्वन्यात्मकता । 'ध्वनि'शब्द हमें दो दृष्टिबिंदुओंका भासन कराता है-प्रथम-सामान्यार्थ, जो नाद-निनाद, ताल-लय-स्वरादि संगीतात्मकताको फलित करनेवाला; और द्वितीय-विशिष्ट्यार्थ, जो गूढ या व्यंजक व्यंजनाको अभिव्यक्त कर्ता एवं जो साहित्यान्तर्गत व्याकरण, रस, रीति अलंकारादिका पोषक या सहयोगीके रूपमें सूचितार्थ प्रदर्शित करनेवाला होता
'ध्वनि' विशिष्ट्यार्थ साहित्यसे अनुबद्ध होनेके कारण हम प्रथम उसे लक्ष्य करके कुछ विचार विमर्श करेंगे। अभिधा और लक्षणाके अतिरिक्त विशिष्ट व्यंग्य द्वारा जो चमत्कार व्युत्पन्न होता है, वही शब्द-अर्थ रूपको 'ध्वनि' कहते हैं। इस 'ध्वनि'को आचार्य श्री आनंदवर्धनने अनुरणन रूपमें प्ररूपित की है, जो घंटनाद-सदृश प्रथम तो टकराहटसे टंकार,पश्चात् शनैःशनैः, सूक्ष्म-सूक्ष्मतर होते होते मधुर-मधुरतर झंकारको ध्वनित करती जाती है।-यथा- “एवं घंटनादस्थानीयः अनुरणनान्त्योपलक्षितः व्यंग्योऽप्यर्थः ध्वनिरिति व्यवहतः ।"१०० अतः पूर्वाचार्य निर्धारित यह ध्वनि सिद्धान्त व्यंजना प्रधान होनेसे काव्यके तीन प्रकार बन जाते हैं . ध्वनिकाव्य, गुणीभूत व्यंग्यकाव्य, और अवर काव्य ।
काव्यमें व्यंग्यार्थकी निष्पत्ति भी वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ आश्रित रहती है अतः व्यंग्यार्थकी प्रमुखता 'प्रधान ध्वनिकायके मुख्य दो भेद होते है . (१) लक्षणामूला-ध्वनि और (२) अभिधामूलाध्वनि । इन दोनोंके दो उपभेद किये जाते हैं (१) A. अर्थांतर संक्रमित और B. अत्यन्त तिरस्कृतः एवं (२) A. संलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि और B. असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि । साहित्यमें ध्वनिकाव्यकी अतीव विशालताको लक्ष्यमें रखते हुए उपरोक्त भेदोपभेदोंके अनेक प्रभेदोपभेद होते हैं। वाच्यार्थकी तुलनामें गौण या अप्रधान व्यंग्यवाले काव्य-गुणीभूत व्यंग्य काव्यके आठ भेद माने जाते हैं-अगूढ, अपरांग, वाच्य सिद्ध्यंग, अस्फूट, संदिग्ध प्राधान्य, असुंदर, तुल्य प्राधान्य एवं काक्वाक्षिप्त व्यंग्य। और जहाँ व्यंग्यार्थ होता ही नहीं, केवल शब्द-वैचित्र्यसे काव्यमें सौंदर्यानंद निहित रहता है वह अवरकाव्य या चित्रकाव्य कहा जाता है। अतः संक्षेपमें हम यह कह सकते हैं कि . "ध्वनि सिद्धान्तकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसने अपने अंतर्गत रस, अलंकार, व्रकोक्ति, रीति आदि समस्त काव्य सिद्धान्तोंके मूल तत्त्वोंका समावेश कर लिया है। ऐसा व्यापक काव्य सिद्धान्त विश्वके साहित्यमें नहीं मिलता। यह काव्यकी व्यापकसे व्यापक और सूक्ष्मसे सूक्ष्म विशेषताओंको अपने भीतर समेट लेता है ।"१०१
अद्यावधि विवक्षान्तर्गत शब्दशक्ति-अलंकार-प्रतीक-बिम्बादिके विश्लेषण एवं विवरणसे हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि श्री आत्मानंदजी म.सा.के पद्य साहित्यमें प्रमुखतः ध्वनि काव्यके एवं गुणीभूत
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