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________________ अर्थ : बाँस के अग्रभाग पर आरूढ़ गृहवेषी इलापुत्र किसी भी श्रेष्ठ मुनि को (भिक्षा हेतु) विचरण करते हुए देखकर शुद्ध भाव के कारण केवलज्ञानी हो गए। आसाढमूइमुणिणो* भरहेसरपिक्खणं कुणंतस्स । उप्पन्नं गिहिणो वि हु भावेणं केवलं नाणं ।। 143 ।। अर्थ : भरतेश्वर नाटक को (करते हुए) देखकर, गृहस्थावस्था में रहने पर भी आषाढभूति नामक मुनि को शुद्ध भाव के कारण केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। मेरुस्स सरिसवस्स य जत्तियमित्तं च अंतरं होइ। दव्वत्थयमावत्थाण अंतरं तत्तियं णेयं ।। 144 ।। अर्थ : मेरुपर्वत और सरसों के वृक्ष का उनमें जितना अंतर होता है, उतना (ही) अन्तर द्रव्यपूजा और भावपूजा में जानो। उक्कोसं दव्वत्थयमाराहिअ जाइ अच्चुअं जाव। भावत्थएण पावइ अंतमुहुत्तेण णिव्वाणं ।। 145 ।। अर्थ : द्रव्यपूजा की अत्यधिक आराधना यदि स्वर्ग (देव-लोक) ले जाती है (तो) भावपूजा द्वारा अन्तर्मुहूर्त से (उससे कुछ कम समय से) निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं। अह मणुयखित्तमज्झे महाविदेहा हवन्ति पंचेव। इक्किक्कम्मि विदेहे विजया बत्तीसबत्तीसं ।। 146 ।। अर्थ : इस मनुष्य क्षेत्र में पाँच ही महाविदेह होते हैं, (उनमें) एक-एक विदेह में बत्तीस-बत्तीस विजय (होते हैं)। भरतचक्रवर्ती, इलापुत्र और आषाढभूति मुनि की कथा के लिए परिशिष्ट 'ब' देखें। 30 सिरिकुम्मापुत्तचरिअं। :-2000069658000356683693 8888888338 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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