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________________ अर्थ : इस प्रकार केवली के वचनों को सुनकर दुःखी (उदास/खिन्न) मन वाली वह यक्षिणी सभी कुछ नष्ट हुए व्यापारी के समान अपने घर को पहुँची। दिट्ठा सा कुमरेणं पुट्ठा य सुकोमलेहि वयणेहिं । सामिणि मणे विसण्णा अज्ज तुमं हेउणा केणं।। 5511 अर्थ : उसे देखकर कुमार के द्वारा अत्यंत कोमल वचनों से पूछा गया हे स्वामिनी! आज तुम किस कारण से मन में विषाद/दुःख लिये हुए हो। किं केण वि दूहविआ किं वा केणवि न मन्निआ आणा। किं वा मह अवराहेण कृप्पसन्ना तुम जाया ।। 56|| अर्थ : क्या किसी के द्वारा (तुम) दुःखित की गई हो अथवा क्या किसी के द्वारा (तुम्हारी) आज्ञा नहीं मानी गई अथवा क्या मेरे (किसी) अपराध से तुम अप्रसन्न हो गई हो। सा किंचि वि अकहंती मणे वहंती महाविसायभरं। निबंधे पुण पुट्ठा वुत्तंतं साहए सयलं।। 57 ।। अर्थ : वह यक्षिणी कुछ भी नहीं कहती हुई मन में महान् विषाद के भार को ढोती रहती है। फिर आग्रह पूर्वक पूछने पर समस्त वृत्तान्त को कहती है। सामिय मए अवहिणा तुह जीवियमप्पमेव नाऊणं। आउसरूवं केवलिपासे पुठं च कहिअं च ।। 58।। अर्थ : हे स्वामी! मैंने अवधिज्ञान से 'तुम्हारा अल्पजीवन' है ऐसा जानकर केवली के पास (तुम्हारी) आयु के स्वरूप को पूछा था। और (उन्होंने) कहा - चंचलं सुरचाउ व्व विज्जुलेहेव चंचलं । पायावलग्गपंसु व्व जीयं अथिरधम्मयं ।। 59 ।। (अतिरिक्त गाथा) अर्थ : (यह) जीवन इन्द्रधनुष के समान चन्चल है, विद्युत की चमक की तरह चंचल (क्षणिक) है, (और) पैरों में लगी हुई धूल के समान अस्थिर धर्म (स्वरूप) वाला है। सिरिकुम्मापुत्तचरि 13 888888888888 29868808888888888888888888 20-2500000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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