________________
इति श्रीमत्तपाचन्द्रगच्छेशआणहविमलसूरिपट्टालंकारश्रीहेमविमलसूरिशिष्यश्रीजिनमाणिक्येन कूर्मापुत्रचरित्रं विरचितं महोपाध्यायश्रीमुक्तिसौभाग्यगणिशिष्यमुनिकल्याणसौभाग्येन लिखित।
जिनमाणिक्य के नाम पर हमें गुजराती भाषा का 'कूर्मापुत्ररास' नाम का काव्य मिलता है। डॉ. के.व्ही. अभ्यंकर ने 'कुम्मापुत्तचरिअं' तथा 'कूर्मापुत्ररास' का कर्ता वही जिणमाणिक्य है, ऐसा प्रतिपादन किया है। लेकिन 'कूर्मापुत्ररास' का कर्ता जिनमाणिक्य खरतरगच्छ में से ६०वाँ पट्टधर था। उसका जन्म संवत् १५४६ (ई. १४६२) में हो गया और संवत् १५६० में उसने दीक्षा ली थी। इसलिए 'कुम्मापुत्तचरिअं' का कर्ता तपागच्छीय जिणमाणिक्य 'कूर्मापुत्ररास' का कर्ता जिनमाणिक्य से पूर्णतया भिन्न है, इसमें कुछ सन्देह नहीं।
यदि उक्त बातों पर विचार किया जाए तो 'कुम्मापुत्तचरिअं' का कर्ता जिणमाणिक्य है या अनंतहंस है, यह निश्चित विधान किया नहीं जा सकता। इन दोनों में से कोई एक इस काव्य का कर्ता हो, ऐसा अनुमान करना पड़ेगा। किन्तु कुछ प्रतियों में अनन्तहंस का पृथक् उल्लेख प्राप्त होने से उसे ही इस ग्रंथ का कर्ता मानना उचित है।
समय–'कुम्मापुत्तचरिअं' की प्राचीनतम प्रति ई.स. १५३८ की है, तो 'दृष्टान्तरत्नाकर' ग्रंथ ई.स. १५१३ में लिखा गया है, ऐसी विवेचना मिलती है। तपागच्छ के पट्टावलि से श्रीहेमविमलसूरि का समय ई.स. १४६२ से ई. १५१२ तक प्राप्त होता है। जिणमाणिक्य या अनंतहंस इनमें से कोई भी कर्ता माना जाए, तो उसका समय ई.स. १५३८ के आसपास अर्थात् सोलहवीं शताब्दी का प्रारम्भ काल होगा, ऐसा प्रतीत होता है।
स्थल–'कुम्मापुत्तचरिअं' की हस्तप्रतियाँ उत्तर गुजरात में मिली हैं। उस समय हस्तलिखित प्रति एक स्थान से दूसरी जगह ले जाना अशक्य था। इससे कहा जा सकता है कि 'कुम्मापुत्तचरिअं' के कर्ता का निवास स्थान उत्तर गुजरात में ही होगा। तपागच्छ का संबंध भी गुजरात-मारवाड़ प्रान्त से ही दिखता है। इसलिये तपागच्छ के आचार्यश्री के शिष्य जिनमाणिक्य या प्रशिष्य अनंतहंस का संबंध भी इस प्रान्त से होना स्वाभाविक है। जिनमाणिक्य को अहमदाबाद में तथा अनंतहंस को ईडर में वाचकपद मिला, ऐसा उल्लेख मिलता है। इसलिए 'कुम्मापुत्तचरिअं' के कर्ता का विहार अहमदाबाद और उसके आसपास का प्रदेश साबरकांठा, महेसाणा, बनारसकांठा आदि जिलों में हुआ होगा।
संक्षेप में कहा जाये तो 'कुम्मापुत्तचरिअं' का कर्ता जिनमाणिक्य या अनंतहंस तपागच्छ के हेमविमलसूरि का शिष्य या प्रशिष्य था। वह ई.स. १६वीं सदी के प्रारम्भ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org