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________________ 6. द्वीन्द्रियजातिनाम 15. निद्रानिद्रा 7. त्रीन्द्रियजातिनाम 16. प्रचला-प्रचला 8. चतुरिन्द्रियजातिनाम 17. स्त्यानर्द्धि 9. आतपनाम तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय की अवशिष्ट आठ प्रकृतियों का क्षय करता है। (यह सारा अन्तर्मुहूर्त काल में संपन्न हो जाता है। फिर नपुंसक वेद, स्त्री वेद, हास्यादिषट्क और पुरुषवेद तथा संज्वलन कषाय आदि का क्षय होता है। श्रेणी की समाप्ति का काल भी अन्तर्महत का ही होता है अन्तर्मुहर्त के असंख्येय भाग होते हैं। जब चरम लोभाणु का क्षय हो जाता है, तब यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होती है)।। :-111-111/2 अर्थ :- तत्पश्चात् क्षपकश्रेणी प्राप्त निर्ग्रन्थ कुछ विश्राम करता है और जब छदमस्थ वीतरागत्व के दो समय शेष रहते हैं तब वह पहले निद्रा फिर क्रमशः प्रचला, देवगतिनाम, देवगतिआनुपूर्वीनाम, वैक्रियनाम, प्रथम संहनन के अतिरिक्त शेष पाँच संहनन, प्राप्त संस्थान के अतिरिक्त शेष पाँच संस्थान, तीर्थकर नाम तथा आहारकनामकर्म का क्षय करता है (यदि प्रतिपत्ता तीर्थकर हो तो वह केवल आहारकनामकर्म का क्षय करता है)।। :-111/3-4 अर्थ :-- चरम समय में ज्ञानावरणपंचक, चतुर्विध दर्शनावरण तथा पाँच प्रकार के अंतरायकर्म का क्षय कर वह केवली होता है।। :-111/5 88 सिरिकुम्मापुत्तचरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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