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मुनि - (गाथा, 40 )
मननमात्रभावमात्रतया मुनिः । ( समयसार, आत्मख्याति - 151 ) अर्थात् मनन मात्र भावस्वरूप होने से मुनि है ।
मोक्ष - (गाथा, 25 )
बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । (त. सू. 10 / 2 ) अर्थात् बन्ध हेतुओं (मिथ्यात्व कषाय आदि) के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का अत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है ।
व्रत (गाथा, 2, 26 )
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हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् । (त. सू. 7/1 )
अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से (मन, वचन, काय द्वारा) निवृत होना व्रत है | श्रावकों के व्रत 12 हैं - 5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत तथा 4 शिक्षाव्रत । समवशरण - ( गाथा, 32 )
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अर्हत् भगवान् के उपदेश देने की सभा का नाम समवशरण है । जहाँ बैठकर तिर्यंच, मनुष्य, देव - - पुरुष व स्त्रियाँ सभी उनकी अमृतवाणी से कर्ण तृप्त करते हैं । समिति (गाथा, 13, 41 )
आराधना प्रकरण
सम्यगिति : समितिरिति । (रा. वा., 9/5)
अर्थात् सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति का नाम समिति है । ये पाँच प्रकार की हैं - ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-1 - निक्षेप और उत्सर्ग |
सिद्ध - ( गाथा, 35 )
निरस्तद्रव्यभावबन्धा मुक्ता: । (राजवार्तिक, 2/10)
अर्थात् जिनके द्रव्य और भाव रूप दोनों कर्म नष्ट हो गये हैं, वे सिद्ध (मुक्त) कहलाते हैं ।
सुकृत - (गाथा, 4 )
शुभः पुण्यस्य । (त. सू., 6/3)
अर्थात् शुभ कर्म ही पुण्य (सुकृत) हैं।
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