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आराधना प्रकरण सुख) में धारण करें, उसे धर्म कहते हैं। परमेष्ठी - (गाथा, 68)
परम पदे तिष्ठति इति परमेष्ठी परमात्मा। (स्व. स्तो. टी. - 39)
अर्थात् जो परम पद में स्थित हो वह परमेष्ठी परमात्मा हैं। परमेष्ठी पांच हैं - अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। परिग्रह - (गाथा, 42)
मूर्छा परिग्रह। (त. सू.,7/17)
अर्थात् द्रव्यों के प्रति मूर्छाभाव परिग्रह है। परिग्रह नौ प्रकार के होते हैं - क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास तथा कुप्यप्रमाण । पाप - (गाथा, 2, 29)
पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्। (सर्वार्थसिद्धि, 6/3)
अर्थात् आत्मा को शुभ कर्मों से बचाये, वह पाप है या अशुभ कर्म पाप है। यह 18 हैं - हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, कलह, कूट, पैशुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, छल-छद्म, मिथ्या और शल्य।
प्रातिहार्य - (गाथा, 31) जिनसे अर्हन्त सेवित होते हैं, उन्हें प्रातिहार्य कहते हैं। ये आठ प्रकार के होते
है
1. अशोक वृक्ष 2. तीन छत्र 3. रत्नखचित सिंहासन 4. भक्तियुक्त गणों द्वारा वेष्टित रहना 5. दुंदुभिनाद
6. पुष्पवृष्टि 7. प्रभामण्डल तथा 8.64 चामर युक्तता। मद - (गाथा, 33)
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः। (र क. श्रा. 1/25)
अर्थात् ज्ञानादि आठ प्रकार से अपना बड़प्पन मानने को गणधरादि ने मद कहा है। ये आठ प्रकार के हैं - 1.ज्ञान
2. पूजा (प्रतिष्ठा) 3. कुल (वंश) 4. जाति 5. बल
6. ऋद्धि 7. तप
8. शारीरिक सुन्दरता।
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