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________________ आराधना प्रकरण 43 अन्वय : इत्थ मिच्छत्तविमोहिएणं भमंतेणं मए जं कुतित्थं कयं (तं) मणेण वायाइ कलेवरेण तमिण्हं सव्ववंपि अहं निंदामि। अनुवाद : इस संसार में मिथ्यात्व एवं मोहवशात् भ्रमण करते हुए मेरे द्वारा जो कुतीर्थ (गलत तीर्थ) किया गया। उसकी मन, वाणी एवं शरीर से निन्दा करता हूँ। पच्छाइउं जं जिणधम्ममग्गं' मए कुमग्गं पयडीकउं जं। जाउं अहेऊं' परपावहेऊ', निंदामि सव्वंपि अहं तमिण्हं॥49॥ अन्वय : जं जिणधम्ममग्गं मए पच्छाइउं (च) कुमग्गं पयडीकउं जं अहेऊं परपावहेऊ जाउं तमिण्हं सव्वंपि अहं निंदामि। अनुवाद : जो जिनधर्म निर्दिष्ट मार्ग को मैंने प्रच्छादित किया और कुमार्ग को प्रकट किया तथा जो निष्प्रयोजन दूसरों के भयंकर पाप के कारण बने हैं, उन सबकी मैं निन्दा करता हूँ। जंताणि जं जंतु दुहावहाई, हलुक्खलाईणि मए कया। जं पोसिअंपावकुडंबयं च, निंदामि सव्वंपि अहं तमिण्हं॥ 50॥ अन्वय : जं जंतु दुहावहाई हलुक्खलाईणि जंताणि मए कयाइं जं पावकुडंबयं च पोसिअं अहं इण्हं तं सव्वपि निंदामि। अनुवाद : जीवों के दु:खावह जिन यंत्रों हल, उक्खल आदि को मैंने स्थापित किया तथा पाप कुटुंब का (गृहस्थ धर्म का पालन करने पर पापों का) जो पालन- पोषण किया, उन सबकी इस समय निंदा करता हूँ। जिणभवण-बिंब-पुत्थय-संघसरूवाइं सत्तखित्तेसु। जं च विअ धण-बीअं, तमहं अणुमोअए' सुकयं ॥ 51॥ अन्वय : जिणभवण-बिंब-पुत्थय-संघसरूवाइं सत्तखित्तेसु जं (धम्मो) व विअ धण-बीअं तं सुकयं अहं अणुमोअए। अनुवाद : जिनभवन, जिनप्रतिमा, शास्त्र, चतुर्विधसंघ (श्रावक, श्राविका श्रमण, श्रमणी) स्वरूप सात क्षेत्रों में जो(धर्म) रूपी धन के बीज हैं, उन सब सुकृत का (मैं) अनुमोदन करता हूँ। 2. (अ) मह 3. (अ, ब) कुमग्गो 4. (ब) अहं जं 6. (ब) जताणि (ब) "खिहीद 9.121) अणुमोहए 1. (ब) "मग्गो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
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