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आराधना प्रकरण A Dictionary of Sanskrit Grammeri में प्रकरण के संदर्भ में किसी विशेष विषय के विवेचन को प्रकरण कहते हुए लिखा है कि -- Literary works in which the treatment is given in the form of topics by arranging the original sutras or rules differently so that all such rules as relate to a particular topic are found together, the Prakriyakaumudi, the Siddhāntakaumudi and others are called प्रकरण ग्रंथs. Such works are generally known by the name प्रक्रिया-ग्रंथ as opposed to वृत्तिग्रंथ।
आगमिक प्रकरणों का उद्भव -
यह पूर्व में ही कहा जा चुका है कि आगम सूत्रों को व्याख्यायित करने का गुरुतर कार्य आचार्य मनीषियों ने किया। यह परम्परा कुछ समय तक प्रचलित रही, किन्तु आचार्यों ने विषय प्रतिपादन में प्रकरण विधा को अपनाया। आगमों के आधार पर रचित प्रकरणों को आगमिक प्रकरण कहा जाता है। प्रकरण ग्रंथ के स्वरूप पर की गई पूर्व चर्चा के आधार पर कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने आगम ग्रंथों के सिद्धांत विशेष को व्याख्यायित करने के लिए प्रकरण ग्रंथों की रचना की होगी। यद्यपि व्याख्या ग्रंथों के द्वारा विषय का प्रतिपादन भली-भाँति हो जाता था, फिर इन प्रकरण ग्रंथों के लिखने की परम्परा की आवश्यकता क्यों प्रतीत हुई ? यह एक विचारणीय प्रश्न उपस्थित होता है। इसके समाधान में जैन साहित्य का बृहद इतिहास में जिन बिन्दुओं को दर्शाया गया है, वे इस प्रकार हैं -
1. आगमों का पठन-पाठन सामान्य कक्षा के लोगों के लिए दुर्गम ज्ञात होने पर उन आगमों के साररूप से भिन्न-भिन्न कृतियों की रचना का होना स्वाभाविक है। इस तरह रचित कृतियों को आगमिक प्रकरण कहते हैं।
2. बहुत बार ऐसा देखा जाता है कि आगमों में कई विषय इधर-उधर बिखरे हुए होते हैं। ऐसे विषयों में से कुछ तो महत्त्व के होते हैं। अतः वैसे विषयों के सुसंकलित और सुव्यवस्थित निरूपण की आवश्यकता रहती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सुसम्बद्ध प्रकरण रचे जाने चाहिए और ऐसा हुआ भी है।
3. आगमों में आने वाले विषय सरलता से कण्ठस्थ किये जा सकें इसलिए उनकी (प्रकरणों की) रचना पद्य में होनी चाहिए, किन्तु आगमों में आने वाले वे 1. A Dictionary of Sanskrit Grammar, General editor. A. N. Jain, Oriental
Institute, Baroda 1977, Pege 258. 2. जैन साहित्य का बहद् इतिहास - मेहता एवं कापडिया, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्था, वाराणसी, 1968, पृ.146
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