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________________ आराधना प्रकरण लगी। उन्होंने इसके साथ ही व्याख्या लिखने का क्रम इस रूप में चालू रखा कि समूचे ग्रंथ का प्रतिपाद्य व्याख्यायित न किया जाकर किसी एक विषय को प्रधानता देकर उसकी विवेचना की जाने लगी। इस युग में शास्त्र के सर्वाङ्गीण विवेचन की अपेक्षा किसी विशिष्ट अंग का विवेचन अधिक उपयोगी समझा जाने लगा। परिणामत: इस विशेष प्रकार के ग्रन्थों के लिखने के प्रचलन को प्रकरण ग्रंथ कहा गया । कोशग्रंथों में 'प्रकरण' शब्द को परिभाषित किया गया है। काव्यशास्त्र की अपेक्षा से उसे रूपक का एक भेद माना गया है । साहित्य दर्पण में लोक नाट्य के भेदों को इस रूप में प्रदर्शित किया गया है नाटकमथ प्रकरणं भाणव्यायोगसमवकारडिमाः । ईहामृगांक वीथ्यः प्रहसनमिति रूपकाणि दश ॥ (सा. द. 6/4) भारतीय दर्शन कोश में 'प्रकरण' शब्द को परिभाषित करते हुए चिंतन किया गया कि जहाँ पर उपकारी तथा उपकारक की आकांक्षा हो उसे प्रकरण कहते हैं । इस कोश में प्रकरण शब्द की व्युत्पत्ति परक मीमांसा करते हुए लिखा है- प्र उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर प्रकरण शब्द बना है । जिसका सामान्य अर्थ होता है- प्रक्रिया अथवा विचार । अर्थात् जहाँ प्रतिपाद्य विषय के सन्दर्भ में विशेष चिंतन किया जाए, उसे प्रकरण की कोटि में रखा जाता है। प्रकरण एक विशेष प्रकार की विधा है, जिसमें समस्त प्रतिपाद्य विषय का प्रतिपादन न कर केवल एक देश का प्रतिपादन किया जाता है । वह विवेचन सुगठित, सरल और संक्षिप्त होने के साथ-साथ विषय में नवीनता लिए हुए होता है। वेदान्तसार (सदानन्द ) में प्रकरण के सन्दर्भ में कहाँ गया है कि शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् । आहुः प्रकरणं नाम ग्रंथभेदं विपश्चितः ॥ (का. 52 ) अर्थात् जिस ग्रंथ में किसी एक ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषयों में से एक ही विषय को प्रधानता से प्रतिपादित किया जाय तथा सम्बद्ध शास्त्र से अतिरिक्त शास्त्रीय विषय / विषयों का प्रयोजनानुसार समावेश किया जाए, उसे प्रकरण ग्रंथ कहते हैं । भारतीय दार्शनिक परम्परा में प्रकरण ग्रंथ लिखने की परम्परा प्राचीन रही है । न्याय, वैशेषिक, दार्शनिक परम्परा में भी प्रकरण ग्रंथ लिखे गये हैं । धर्मकीर्ति की न्यायबिन्दु हेतुबिन्दु, वाचस्पति आदि प्रकरण ग्रंथ कहे गये हैं । 12वीं शताब्दी का शशधरकृत न्यायसिद्धान्तदीप नामक प्रकरण ग्रंथ न्याय तथा वैशेषिक के कुछ चुने हुए पदार्थों का निरूपण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
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