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भावार्थ- लोभी मनुष्य को धन देकर, परोपकारी, गुरु, मालिक, हठी आदि अभिमानी मनुष्य को हाथ-जोड़कर अर्थात् विनय से, मूर्ख-मन्दबुद्धि मनुष्य को उसके अनुसार प्रवृत्ति कर तथा बुद्धिमान् व्यक्ति को यथार्थ का परिचय कराकर अर्थात् सत्य व्यवहार करके ग्रहण करना अर्थात् अपने वश में करना चाहिए ।
अणाहीएन सत्थं च, अजिण्णे भोयणं विसं । विसं गोट्टी दलिद्दस्स, वुड्डस्स तरुणी विसं ॥५४॥
अन्वयार्थ- (अणाहीएज सत्थं) अभ्यास नहीं करने पर शास्त्र [विष हैं] (अजिण्णे भोयणं विसं) अजीर्ण होने पर भोजन विष है (दलिदस्स गोट्टी विसं) दरिद्र के लिए गोष्ठी विष है [तथा] (वुड्ढस्स तरुणी विसं) वृद्ध के लिए तरुणी विष है ।
भावार्थ- बार-बार अभ्यास नहीं करने पर शास्त्रज्ञान विष जैसा हो जाता है अर्थात् कुछ का कुछ प्रतिपादन होने लगता है । अजीर्ण होने पर भोजन जहर हो जाता है । सामाजिक-धार्मिक सभा दरिद्र के लिए जहर है, क्योंकि एक तो उसकी आजीविका कमाने का समय नष्ट होगा, दूसरा उसे अपमान भी सहन करना पड़ सकता है तथा बूढ़े मनुष्य के लिए तरुण-स्त्री जहर के समान शीघ्र मारने वाली होती है।
पाणीए हि रसो सीदो, भोयणस्सादरो रसो । अणुकूलो रसो बंधू, मित्तस्सावंचणं रसो ॥५५॥
अन्वयार्थ- ( हि) वस्तुत: (पाणीए रसो सीदो) पानी का रस शीत है (भोयणस्सादरो रसो) भोजन का रस आदर है (अणुकूलो रसो बंधू) बन्धुओं का रस अनुकूलता है [और (मित्तस्सावंचणं रसो) मित्र का अवंचना रस है ।।
भावार्थ- वास्तविक बात यह है कि पानी शक्कर से नहीं अपितु अपनी शीतलता से ही मीठा लगता है, भोजन पक्वानों से
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