________________
अन्वयार्थ - (भोजगारं कई वेज्जं सेवगं सत्थ- पाणिगं सामीणं धणिणं मूढ, णाण- जुत्तं ण कोवदे) भोजकार, कवि, वैद्य, सेवक, शस्त्रयुक्त, स्वामी, धनिक, मूर्ख [ तथा ] ज्ञान - सम्पन्न को कुपित नहीं करना चाहिए ।
भावार्थ - भोजन बनाने वाले रसोइया, कवि, वैद्य - डॉक्टर, सेवक - नौकर, हाथ में शस्त्र लिए हुए व्यक्ति, मालिक (गुरु), धनवान्, मूर्ख और ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति को किन्हीं कारणों से कभीभी कुपित नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये क्रोधित होने पर महाअनर्थ कर सकते हैं ।
सुवक्केण जुदं दाणं, सूरतं खम-संजुदं । अगव्व-संजुदं णाणं, लोगम्हि अइ दुल्लहं ॥५२॥
अन्वयार्थ- (सुवक्केण जुदं दाणं) सुवाक्यों से युक्त दान . (सूरतं खम-संजुदं) क्षमा युक्त शूरता (अगव्व संजुदं णाणं) अगर्व युक्त ज्ञान ( लोगम्हि अइ दुल्लहं) लोक में अति दुर्लभ हैं ।
भावार्थ- अच्छे वचन बोलते हुए दान का देना, क्षमाभाव युक्त शूर अर्थात् शूरवीर व्यक्ति और अभिमान रहित - ज्ञान संसार में अत्यन्त दुर्लभ हैं । दानवीरता, शूरता और ज्ञानयुक्तता ये ऐसे गुण है, जिनके आने पर मनुष्य के अभिमान आदि दोष बढ़ जाते हैं; इसलिए इनकी निर्दोष प्राप्ति तीन लोक में भी दुर्लभ कही है ।
-
लुद्धमत्थेण गेण्हेज, माणिं अंजलि कम्मुणा । मुक्खं छंदाणुवत्तीए, जहेट्ठत्तेण पंडिदं ॥५३॥
अन्वयार्थ - (लुद्धमत्थेण) लोभी को धन से (माणिं अंजलि कम्मुणा) मानी को हाथ जोड़कर ( मुक्खं छंदाणुवत्ती ) मूर्ख को छन्दानुवृत्ति से [तथा ] (पंडिदं) पण्डित को (जहेद्वत्तेण ) यथार्थता से (गेहेज) ग्रहण करना चाहिए ।
४९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org