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रजं च संपदा भोगा, सुकुलं च सुरूवदा । पंडित्तं आऊ आरोग्गं, जिणधम्मस्स सप्फलं ॥२९॥ ___ अन्वयार्थ- (रजं) राज्य, (संपदा) संपत्ति (भोगा) भोग (सुकुलं) सुकुल, (सुरूवदा) सुरूपता, (पंडित्तं) पाण्डित्य (आऊ) आयु, (च) और (आरोग्गं) आरोग्य, [ये] (जिणधम्मस्स) जिनधर्म के (सप्फलं) अच्छे फल हैं ।
भावार्थ- राज्य, संपदा, सुकुल में जन्म, सुंदर-शरीर, शास्त्रों में पारगामिता, लम्बी आयु और निरोगता ये जिनधर्म का अच्छी तरह पालन करने से प्राप्त होने वाले श्रेष्ठ फल हैं अथवा सारी सुख-सुविधाएँ श्रेष्ठ जैनधर्म के पालन करने से प्राप्त होती
सचं सोचं दया-दाणं, चागं संजम-पालणं । तवं परोवगारित्तं, धम्मप्पए हि लक्खणं ॥३०॥
अन्वयार्थ- (हि) वस्तुत: (सच्चं सोचं दया-दाणं-चागंसंजमपालणं) सत्य, शौच, दया, दान, त्यागशीलता, संयम का पालन करना, (तवं) तप [और] (परोवगारितं) परोपकारिता [ये] (धम्मप्पए) धर्मात्मा के (लक्खणं) लक्षण हैं |
भावार्थ- सत्यवादिता, निर्लोभता, निर्मलता, दयाभावना, दानशीलता, त्यागमय जीवन, संयम का परिपालन, यथायोग्य तप
और परोपकार करने की सतत् प्रवृत्ति ही धर्मात्माजनों के लक्षण हैं, न कि बाह्य वेषभूषा और आडम्बर ।।
णाणादुहादु उद्धत्तुं, लोयम्हि को समत्थो हि । मोत्तूण जिणधम्मं च, जिणदेवो य सग्गुरू ||३१|| .. अन्वयार्थ- (लोयम्हि) लोक में, (जिणदेवो) जिनेन्द्र भगवान्, (सग्गुरू) सच्चे गुरु (च) और (जिणधम्म) जैनधर्म को
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