SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्वयार्थ- (लच्छी) लक्ष्मी (दुहेण), दु:ख से (पत्तेदि) प्राप्त होती है, (दुक्खेण) दु:ख से (ट्ठिदा) ठहरती है (रक्खदे), रक्षित होती है, (तण्णासेण) उसके नाश से, (महादुक्खं) महादुख होता है, [ऐसी] (दुक्खणिहिं) दु:खनिधि (लच्छिं) लक्ष्मी को (धिगो) धिक्कार है। देवपूजा दया दाणं, तित्थजत्ता जवो-तवो । सुदं परोवगारित्तं, णरजम्मं फलट्टगं ॥२७॥ ___ अन्वयार्थ- (देवपूजा दया दाणं) देव पूजा, दया, दान (तित्थजत्ता) तीर्थयात्रा (जवो-तवो) जप-तप, (सुदं) श्रुत [तथा] (परोवगारित्तं)परोपकार की भावना [ये] (णरजम्म), मनुष्यजन्म के (फलट्ठगं) आठ फल हैं । भावार्थ- जिनेन्द्र देव की पूजा करना, सभी जीवों पर दया भाव रखना, सुपात्रों को दान देना, तीर्थयात्रा करना, जप करना, तप करना, निरन्तर शास्त्राभ्यास करना और परोपकार करने की भावना रखना ये मनुष्य जन्म की सार्थकता के आठ फल हैं । देवसत्थ-गुरुसेवा, संसारा णिचभीरुदा । पुण्णेण जायदे पुंस, किरिया सोक्ख पुण्णदा ॥२८॥ अन्वयार्थ- (देव-सत्थ-गुरुसेवा) सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की सेवा (संसारा णिच्चभीरुदा) संसार से नित्य भयभीतपना (और) (सोक्ख-पुण्णदा) सुख तथा पुण्य प्रदान करने वाली (किरिया) क्रियाएँ (पुंसं) मनुष्य को (पुण्णेण) पुण्य से (जायदे) होती है । भावार्थ- मनुष्य को सच्चे देवशास्त्र गुरु की सेवा, संसार से भयभीरूता, सच्चा सुख अथवा स्वर्ग-मोक्ष का सुख तथा पुण्य अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रदान कराने वाला आचरण अत्यन्त पुण्य के योग से प्राप्त होता है । - १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002546
Book TitleNidi Sangaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar
PublisherJain Sahitya Vikray Kendra Udaipur
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy