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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ
७१ इनके स्थाईभाव का इस प्रकार वर्णन किया गया है :
रतिहसिश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा । जुगुप्साविस्मयश्चेति स्थापि त्राः प्रकीर्तिताः ॥
lid., VI 17 भरत के नाट्यशास्त्र में आठ रसों को ही स्वीकार किया गया है। कालान्तर में जब विद्वानों ने शान्त रस को स्वीकार किया तब नाट्यशास्त्र के मूल में भी परिवर्तन कर दिया जिसका अभिनव ने इस प्रकार वर्णन किया है
शृंगारहास्यकरुणा: रौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्ये रसाः स्मृताः ॥
N.S., VI 16 रतिहसिश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा । जुगुप्साविस्मयशमाः स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ॥ "शान्तापलाविनस्त्वत्र अष्टाविति पठन्ति ।"
N.S., VI, 18 "तत्र शान्तस्य स्थायी' विस्मयशमाः इति कैश्चित पठितम् ।
lbid. उद्भट ने भी शान्तरस को स्वीकार किया । वे नाट्यशास्त्र के पहले भाष्यकार हैं जिन्होंने रसों की संख्या नौ स्वीकार की है।
आनन्द ने भी शान्तरस को स्वीकार किया किन्तु उन्होंने निर्वेद और सम को इसका स्थायीभाव नहीं माना । उनके अनुसार शान्तरस का स्थायीभाव वह आनन्द है जो इच्छाओं के लोप से प्राप्त होता है -
तृष्णारागक्षयसुखः तृष्णानां विषयरागानां क्षयः सर्वतो निवृत्तिरूपो निरोधः, तदेव सुखम् "शान्त एक नैसर्गिक अवस्था है। दूसरी भावनाएँ जैसे प्यार इत्यादि उस मूलभूत स्थिति की विकृतियाँ हैं । ये सभी विकृतियाँ दिमाग की नैसर्गिक अवस्था
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