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________________ ७० समत्वयोग एक समनवयदृष्टि उत्पत्ति आत्मा की स्वतन्त्रता की सुरक्षा की इच्छा से होती है तथा इसका ध्येय सत्य का ज्ञान प्राप्त करना हैं । यदि हमारे चित्त में किसी प्रकार का दम्भ नहीं है. बासनाओं को गंदगी नहीं है, तुच्छ स्वार्थ लिप्सा का कालुष्य नहीं है तो हम शान्तरस प्राप्त कर सकते हैं । आज सारा विश्व मोह और विषाद से व्याकुल हो रहा है । क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भोग-विलास इत्यादि मनोविकारों के परिणाम स्वरूप व्यक्ति की निर्णय करने की शक्ति कुंठित हो गई है। सभी ओर मोह का साम्राज्य नजर आता है जिसकी वजह से व्यक्ति की बुद्धि और निर्णय लेने की शक्ति में भेद उत्पन्न हो गया है। ऐसी विषमता और विष से भरे विश्व में शान्तरस (Tranquality)का प्राप्त करना बहुत दुष्कर कार्य है । किन्तु यह भी सत्य है कि जहाँ तक इस रस की प्राप्ति नहीं होती वहाँ तक समता नहीं आ सकती । .. हम सभी सुख प्राप्त करना चाहते हैं, उसके पीछे दौड़ते हैं, उसको प्राप्त करने के लिए हर प्रकार का प्रयत्न करते हैं, साधन जुटाते हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि सुख किस वस्तु में है इसे हम नहीं जानते, क्षणिक सुख को सुख मानकर उसी से खुश हो जाते हैं । वास्तविक सुख आत्मिक आनन्द में है, जो स्थायी है तथा जिसे प्राप्त करने के उपरान्त पछताना नहीं पड़ता । इस प्रकार की प्राप्ति शान्तरस के बिना प्राप्त होना असम्भव है । २. साहित्य और धर्म में शान्त रस काफी समय से साहित्य और धर्म में रसों की संख्या आठ मानी गई है। कालीदास ने अपनी रचना 'विक्रमोर्वशीय' में कहा है - मुनिना भरतेन यः प्रयोगो भवतीष्वष्टरसाश्रयो नियुक्तः । ललिताभिनयं तमद्य भर्ता मरुतां द्रष्टुमनाः सलोकपालः ॥११ ११,१८. भरत ने भी इनकी संख्या आठ ही मानी है : शंगार-हास्य-करुण-रौद्र-वीर-भयानकाः । बीभत्साद्भुता-दिसंज्ञाश्चेत्यष्टौ नाटयै रसाः स्मृताः । एते ह्यष्टौ रसाः प्रोक्ता दुहिणेन महात्मना । - N.S.K.M. Edn., VI. 15-16. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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