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समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
शरीर का मूल्य उसके अन्दर निहित चेतना के कारण हैं। यों तो वह हाड़मांस का पुतला है । इस चेतना के कारण ही शरीर इतना स्थूल, शक्तिशाली और सक्षम दिखता हैं । इसमें अन्तर्निहित चेतना को न समझने के कारण बहुत से शरीरासक्त मानव शरीर के सौष्ठव और बल को देखकर गर्व करते हैं । परन्तु एक दिन उनका गर्व चूर-चूर हो जाता है, जब वे अपनी आँखों के सामने शरीर को मिट्टी में मिलता देखते हैं ।
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शरीर और आत्मा दोनों का उचित सन्तुलन बनाये रखना ही समतायोगी साधक का लक्ष्य है । जिन विषय-भोगों से शरीर को सुख मिलता है, उन्हीं से आत्मा को भी मिलता है, ऐसा भेदविज्ञानी कभी नहीं मानता ।
शरीर के साथ यदि आत्मिक विशेषता न हो तो वह एक चलते-फिरते पेड़ सा रह जाता है । अधिक से अधिक उसे कृमि - कीटकों की तरह कुछ विकसितस्तर का कायपिण्ड कहा जा सकता है। ऐसी स्थिति में उस पर कोई दायित्व या नैतिक कर्तव्य नहीं लादा जा सकेगा, न समत्व साधना करने, संयम रखने या परमार्थ कार्यों में तत्पर रहने का औचित्य लागू किया जा सकेगा । तब तो स्वेच्छाचार तथा शोषण, पीड़न एवं रक्तपात पर कोई अंकुश नहीं लगाया जा सकेगा । त्याग, तप, संयम और बलिदान की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी, इसीलिए भेदविज्ञान - परायण साधक शरीर को आत्मिक विशेषताओं से युक्त बनाता हैं, आत्मशक्ति बढ़ाकर शरीर की तेजस्विता, क्षमता और शक्ति में वृद्धि करता है, उसे अपने अनुकूल बनाता है ।
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