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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि अथवा अव्यक्तशक्ति या चेतन, उसके जीवन का सर्वस्व या मूलाधार नहीं बनता, तब तक वह समतायोग की पगडंडी पर निराबाध चल ही कैसे सकेगा? यदि शरीर ही सर्वस्व हो जाता है तो वह इन्द्रियों का जीवन हो जाता है ।
मन और वचन भी शरीर के ही भाग हैं । मन के अन्तर्गत बुद्धि, हृदय, चित्त आदि का समावेश हो जाता है । मन और शरीर ऊपर से देखने में दो अलगअलग पदार्थ दिखते हैं, परन्तु वास्तव में इनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। केवल रूप में भिन्नता है। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के आधार पर टिका हुआ है। शरीर और मन में सिर्फ इतनी-सी भिन्नता है कि शरीर दृश्य है, मन अदृश्य; शरीर स्थूल है, मन सूक्ष्म । उदाहरणार्थ-पानी का साधारण रूप जड़ है, स्थूल है, जो दिखाई पड़ता हैं, किन्तु उसका दूसरा रूप सूक्ष्म है, जिसे हम भाप कहते हैं, अन्दर छिपा रहता है, दिखाई नहीं देता । जिस प्रकार पानी और भाप में केवल रूप की भिन्नता है, गण में दोनों समान हैं, इसी प्रकार शरीर और मन में स्थूल और सूक्ष्म रूप की भिन्नता है, गुण में दोनों समान हैं ! मन में विचार उत्पन्न होते हैं, शरीर उन्हें क्रियान्वित करता है । मन में पैदा होने वाले विचार शरीर को प्रभावित करते हैं । मन दुःखित होता है तो उसका प्रभाव शरीर पर भी पड़े बिना नहीं रहता ।
और वचन ? वह भी मन की ही छाया है , अथवा काया में छिपी हुई मन की ही सघन परत है। विचार, संस्कार और धारणाओं की स्थूल परत वचन या वाणी है और उसकी सूक्ष्म परत मन में उदित विचार हैं । वे शरीर रूपी वादी के भीतर उठते, बैठते, चलते-फिरते, सोते, खाते-पीते; कुछ भी क्रिया करते चौबीसो घण्टे घूमते रहते है।
इस दृष्टि से देखें तो शरीर के ही ये दोनों अंग है । मन है विचार-बीज. वचन है अंकुरित हुए विचार और शरीर है अंकुरित विचार रूपी पौधे का फल । ये तीनों संयुक्त हैं । जो मन में है, वही देर-सवेर वचन में होगा और जो वचन या विचार (किसी भी स्थिति में व्यक्ति के मन में उठते हुए विचार रूप प्रच्छन वचन) में है, वही भविष्य में शरीर में होगा । जो आज शरीर में है, वह आज नहीं तो कल या अतीत में व्यक्ति के वचन या विचार (प्रच्छन्न विचार) में था और जो विचार में हैं, वही अतीत में मन में था । इस प्रकार तीनों का संयुक्त चक्र चलता रहता हैं।
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