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________________ समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि लोभ, राग-द्वेष, मोह आदि विकार बढ़ा रहते हैं, फिर उन्हीं के कारण कर्मबन्ध होते हैं ; जिनके फलस्वरूप नाना गतियों और योनियों में बार-बार भटकना, जन्म मरण करना, नाना यातनाएँ सहना और कष्ट उठाना पड़ता है, उस शरीर को ही देर करें । क्योंकि सारे झगड़ों की जड़ शरीर है । उसके रहते हैं। मनुष्य जाति आदि का मद करता है और अहंकार से लिप्त होता है। शरीर के रहने पर ही मनुष्य सात भयों से भयभीत होता है, निर्भयता की स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता । शरीर के ही इन प्रपंचों और उसकी आवश्यकताओं, तथा शरीर से सम्बद्ध मन और इन्द्रियों की आवश्यकता की पूर्ति करने में मनुष्य प्रायः ही सारा जीवन पूरा कर देता है । न तो वह आत्मा की शक्ति, क्षमता और सामर्थ्य बढ़ा पाता है और न ही वह आत्मा के निजी गुणों-ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सम्यक् आराधना-साधना ही कर पाता है। शरीर के प्रति आसक्ति और मोह के कारण ये सब विशेषताएँ पैदा होती हैं, जो आत्मा को समतायोग की साधना में आगे नहीं बढ़ने देती । मनुष्यशरीर के भोगविलास में ही डूबकर जिन्दगी को पूरा कर देने से उसे जिस आत्मा के विकास के लिए जीवन मिला है, वह लक्ष्य भी पूर्ण नहीं कर पाता। शरीर की सेवाशुश्रूषा करते रहने में आत्मविकास खटाई में पड़ जाता है । आत्मा के सशक्त हुए बिना समतायोग की साधना मरुभूमि में मृग-मरीचिका की ओर भ्रम से दौड़ लगाना है। यहाँ फिर दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है कि शरीर से आत्मा को पृथक कर देने पर तो समतायोग की साधना ही कैसे होगी ? शरीर के साथ आत्मा के जुड़ने पर ही तो समतायोग की साधना या सम्यक् चारित्र की आराधना आदि हो सकेगी । अकेली आत्मा से भी कोई साधना नहीं हो सकती और न ही अकेले निर्जीव शरीर से ही कोई साधना हो सकती हैं । ऐसी स्थिति में शरीर से आत्मा को अलग करने के संकल्प का क्या तात्पर्य है ? इसका समाधान यह है कि शरीर से आत्मा पृथक् कर देने का मतलब शरीर को नष्ट कर देना नहीं है, और न ही शरीर के अंगोपांगों को तोड़-फोड़ देना है, परंतु शरीर के प्रति जो लगाव है, आसक्ति, मोह या ममता-मूर्छा है, आत्मा के प्रति जो विमुखता है, या उपेक्षा है, शरीर की ही इच्छाओं-आकांक्षाओं या अनुचित आवश्यकताओं की पूर्ति करने में जो समय, शक्ति एवं साधनों का जो अपव्यय किया जाता है, उसे छोड़ना है, शरीर के साथ आत्मा का जो मोहमाया का नाता है, उसे तोडना है। और यह सब करना है भेदविज्ञान की भावना से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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