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समत्वयोग और कार्ल मार्क्स मन की वासनाओं के स्रोत बनेंगे । इसी कारण जो बुद्ध इन प्रश्नों को ही नकारते हैं उनका जीवन इन्हीं के उत्तर को प्रतिबिम्बित करता है । और जो मार्क्स धर्म को अफीम कहता है उसका जीवन धर्म की ही प्रेम और करुणा, विश्व- मैत्री एवं बलिदान की भावसत्ता और तदनुकूल आचार को साकार करता है । उसने शोषण, उसके कारण, कारणों को निवारित करने का लक्ष्य तथा उसकी उपलब्धि के साधन निरूपित किये लेकिन लोकजीवन में उनसे शोषणमुक्त समाज की अवतारणा न हो सकी।
मार्क्स के दर्शन में एक बुनियादी भूल रही है और वह है मानव के संस्थागत रूप पर एकांतिक बल तथा उसके मानवीय रूप का सम्पूर्णतः विस्मरण । उसने अपने विचार का आधार यह सूत्र बनाया कि समाज में शोषण का कारण वर्गभेदमय सामाजिक ढाँचा है जिसे बदल डालने पर उसका अन्त हो जायगा । उसका द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसी प्रतिपत्ति पर आधारित है कि मन जैसी कोई सत्ता नहीं है, बाहरी परिस्थितियों के मानव पर जैव-रासायनिक प्रभावों को ही मन की अभिधा दी जाती रही है । अतः जैसा बाहरी वातावरण होगा, मन वैसा ही बन जायगा । मानवीय मन की सारी प्रवृत्तियाँ - बाहरी वातावरण को ही प्रतिबिम्बित करती हैं ।
मार्क्स भूल गया कि शोषण का जन्म प्रथम मन के धरातल पर अहंकार और स्वार्थ के रूप में होता है, तदनन्तर वह आचरण में उतरता है और सामूहिक आचरण संस्थाओं के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। बाहरी ढाँचों को बदलते रहने पर भी मन का धरातल अगर वही है तो हर ढाँचा खोखला होगा जिसके छिद्रों से मन अपनी वासनाओं और कामनाओं की आपूर्ति शोषण और उत्पीड़न द्वारा करता रहेगा।
दूसरी भूल मार्क्स ने, विशेषतः उसके उत्तराधिकारियों ने जो की वह साध्यसाधन-विवेक की विस्मृति थी । हिंसा नंगी सत्ता है और सत्ता ही वैषम्य की जनक है । मार्क्स ने रक्तपात एवं संहार की बात अपने पूरे वाङ्मय में नहीं कही यद्यपि 'संग्राम' की चेतावनी पूँजीवादी व्यवस्था को सर्वत्र दी है। लेकिन उसके उत्तराधिकारियों ने रक्त-क्रान्तियों को साम्य-मूलक समाज-- क्रान्ति का आधार बनाया । पाशविक शक्ति से जो व्यवस्था प्रतिष्ठित होती है वह अपने आप में शोषणमयी होती है चाहे उसका रूप कुछ भी हो ।
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