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________________ ५० समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि बाद शायद दूसरे किसी व्यक्ति में नहीं मिलती, गांधी के सिवाय । इतना आत्मत्याग था उनका जो महावीर के बाद किसी में नहीं मिलता, मोलोकाई द्वीप के मसीहा फादर डेमियन के सिवाय । मार्क्स धर्म के साकार रूप थे, अपने अन्तर्जीवन में उस करुणा और आत्मत्याग को जी रहे थे जिसमें धर्म का सारतत्त्व निहित है । लेकिन वे नहीं समझ पाये कि वह जो अफीम है, धर्म है ही नहीं और वह जो धर्म है, स्वयं उनमें भी प्राणवान है, वही उनकी प्रेरणा है, चाहे उसकी अभिव्यक्ति और माध्यम कुछ भी हों । 'कम्युनिस्ट- मेनीफेस्टो' से मार्क्स का एक और विचार सामने आता है जिसकी ओर पूँजीवादी या साम्यवादी विचारकों का ध्यान बहुत कम गया है । मार्क्स व्यक्ति की गरिमा का विरोधी नहीं । वह व्यक्तिगत सम्पत्ति का भी विरोधी नहीं । वह उन विकृतियों का विरोधी है जो व्यक्तिगत सम्पत्ति के द्वारा समाज में पैदा होती हैं। वह लिखता है - "कठिन श्रम से अर्जित अपने हाथों उपार्जित सम्पत्ति" से क्या आपका मतलब उस सम्पत्ति से है जो छोटे कारीगर या छोटे किसान के श्रम की है जो पूँजीवादी व्यवस्था के सूत्रपात के पूर्व की स्थिति में थी ? उसका निर्मूलन हमें करने की आवश्यकता नहीं, पूँजीवादी व्यवस्था में विशाल यांत्रिक उद्योगों के विकास ने उसे स्वतः ही नष्ट कर दिया है तथा नित्य करता जा रहा है । हमारा यह आशय एकदम नहीं है कि श्रम के द्वारा उपार्जित चीजों का व्यक्तिगत स्वामित्व समाप्त करें जो कि मानवजीवन को कायम रखने तथा उसकी वंशानुपरम्परा को चलाने के लिये आवश्यक हो तथा उससे दूसरों का श्रम अधीन करने के लिए अतिरिक्त धन राशि का संग्रह होता ही नहीं हो पूँजीवादी व्यवस्था में क्या वैतनिक श्रम द्वारा ऐसी सम्पत्ति श्रमिक के लिए पैदा होती है ? जरा भी नहीं । यह उस प्रकार की पूँजी पैदा करती है जो वैतनिक श्रम द्वारा शोषण का उपकरण करती है और जिसका बढ़ना इसी बात पर निर्भर करता है कि नये शोषण के लिए वैतनिक श्रम का जाल कैसे फैलाया जाय । .. यह जो पूँजी (केपिटल) है, सामूहिक उत्पादन है, अनेक व्यक्तियों के सामूहिक श्रम से पैदा होती है तथा अन्ततः समाज के सारे सदस्यों के सामूहिक श्रम से ही इसका प्रवर्तन होता है । अत: पूँजी वैयक्तिक सम्पत्ति नहीं, सामाजिक शक्ति है । अतः जब इसे सामाजिक सम्पत्ति में बदला जाता है समाज के सारे सदस्यों की सम्पत्ति में, तो यह व्यक्तिगत सम्पत्ति का सामाजिक सम्पत्ति में परिवर्तन नहीं है अपितु सामाजिक ... Jain Education International .... .... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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