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समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
समझना चाहते हैं, उन्हें राज्य द्वारा संचालित जनसेवाओं की विराटता और सर्वसुलभता पर मनन करना चाहिए। हमारे देश में रोटी, यात्रा, शिक्षा, निवास और उपचार सर्वसुलभ नहीं हैं, अतः असमता है
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समाजवाद का अगला कदम साम्यवाद है, जिसमें पारिश्रमिक योग्यता के आधार पर नहीं, इच्छानुसार या आवश्यकतानुसार मिल सकता है क्योंकि साम्यवाद के सोपान तक पहुँच कर वस्तुओं का उत्पादन, तकनीकी उन्नति से इतना अधिक होगा कि सभी लोगों की सारी जरूरते पूरी की जा सकेंगी और श्रम या कार्य तब बोझ या व्याधि नहीं, आनन्द या क्रीड़ा में बदल जायगा । लेकिन साम्यवादी व्यवस्था में भी समता हर बात में नहीं हो सकती। शरीर - संरचना, रूप, रुचि, योग्यता, बौद्धिक - प्रतिभा सर्जनात्मक शक्ति आदि की दृष्टि से अन्तर रहेगा ही । मुख्य बिन्दु यह है कि साम्यवादी समाज में इस प्रकार के अन्तर व्यक्तित्व की विशिष्टताओं के रूप में रहेंगे, वैषम्यमूलक अंतर्विरोधों के रूप में नहीं ।
कार्ल मार्क्स ने १८४४ ई. की अपनी 'आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपि' शीर्षक पुस्तक में सर्वप्रथम विषमताग्रस्त समाजों में सर्वत्र व्याप्त " अ-लगाव " (एलियनेशन) की ओर ध्यान खींचा था। आज सौ सवा सौ वर्षों के बाद भी हम गैर-बराबरीग्रस्त समाजों की रग-रग में समायी हुई विषमता की व्याधि और तज्जन्य अ-लगाव से लड़ रहे हैं ।
उत्पादन के साधनों पर कुछ एक व्यक्तियों या वर्गों के स्वामित्व से श्रमिक या वेतनभोगी नौकर अपने कार्य से आत्मनिर्वासित हो जाता है, क्योंकि उसका लाभ और श्रेय मालिक को मिलेगा या बड़े अधिकारी को :
That labour is external to the worker, i.e., it does not belong to his essential being, that in his work. Therefore, he does not affirm himself but denies himself, does not feel content but unhappy, does not develop freely his physical and mental energy but mortifies his body and ruins his mind..... he is at home when he is not working and when he is working, he is not at home. His labour is therefore not voluntary but coerced, it is forced labour.”।
1. Economic and Philosophical Manuscripts of 1844. pp. 68-69.
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