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समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
भी समत्व - वृत्ति का उदय माना गया है । जब समत्वभाव का उदय होता है। तभी व्यक्ति का कर्म अकर्म बनता है । समत्व - वृत्ति से युक्त होकर किया गया कोई भी आचरण बन्धनकारी नहीं होता । उस आचरण से व्यक्ति पाप को प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार ध्यान योग का परम साध्य भी वैचारिक समत्व है । समाधि की एक परिभाषा यह भी हो सकती है कि जिसके द्वारा चित्त का समत्व प्राप्त किया जाता है, वह समाधि है ।
ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान सभी समत्व को प्राप्त करने के लिए हैं । जब वे समत्व से युक्त हो जाते हैं, तब अपने सच्चे स्वरूप को प्रकट करते हैं । ज्ञान यथार्थ ज्ञान बन जाता है, भक्ति परम भक्ति हो जाती है, कर्म अकर्म हो जाता है और ध्यान निर्विकल्प समाधि का लाभ कर लेता है ।
अतः गीता-दर्शन सार रूप में समत्व - दर्शन ही है । यही समता है, यही अद्वैत है । निम्नलिखित श्लोक में स्पष्ट शब्दों में इसी तत्त्व का प्रतिपादन
है
:
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
जिनका मन समत्वभाव में (साम्ये) स्थित है, उनके द्वारा जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार (सर्ग) जीत लिया गया है । सच्चिदानंदधन ब्रह्म निर्दोष और 'सम' है, अतः समत्व बुद्धि वाले वे जीवनमुक्त वस्तुत: ब्रह्म में ही स्थित हैं ।
इसीलिए विनोबाजी गीता को साम्य योग का शास्त्र कहते हैं ।
१. गीता, १२।१७-१९ २. गीता २२३८
३. वही, २/५३
४. वही, ५।१९
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