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भगवद्गीता में समत्वयोग
३९ त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है। जो पुरुष शत्रु-मित्र में और मानअपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में सम है और सारे संसार में आसक्ति से रहित है ।२ तथा जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है, अर्थात् ईश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करनेवाला है एवं जिस किस प्रकार से भी मात्र शरीर का निर्वाह होने में सदा ही सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है, वह स्थिर-बुद्धिवाला, भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है। इस प्रकार जानकर, जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को, समभाव से स्थित देखता है, वही यथार्थ देखता है। क्योंकि वह पुरुष सबमें समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को देखता हुआ अपने आपको नष्ट नहीं मानता है, अर्थात् शरीर का नाश होने से अपनी आत्मा का नाश नहीं मानता है, इससे वह परमगति को प्राप्त होता
समत्व के अभाव में ज्ञान यथार्थ ज्ञान नहीं है चाहे वह ज्ञान कितना ही विशाल क्यों न हो । वह ज्ञान योग नहीं हैं। समत्व-दर्शन यथार्थ ज्ञान का अनिवार्य अंग है । समदर्शी ही सच्चा पण्डित या ज्ञानी है । ज्ञान की सार्थकता
और ज्ञान का अन्तिम लक्ष्य समत्व-दर्शन है । समत्वमय ब्रह्म या ईश्वर जो हम सब में निहित है, उसका बोध कराना ही ज्ञान और दर्शन की सार्थकता है। इसी प्रकार समत्व भावना के उदय से भक्ति का सच्चा स्वरूप प्रगट होता है। जो समदर्शी होता है वह परम भक्ति को प्राप्त करता है । गीता के अठारहवें अध्याय में कृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि जो समत्वभाव में स्थित होता है वह मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है। बारहवें अध्याय में सच्चे भक्त का लक्षण
१. गीता, १२।१७ २. गीता ६७ ३. वही, १२।१९ ४. वही, १३।२७ ५. वही, १३।२८ ६. वही, ५।१८ ७. वही, १३।२७-२८ ८. वही, १८५४
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