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________________ भगवद्गीता में समत्वयोग है । चेतन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह सदैव समत्वकेन्द्र की ओर बढ़ना चाहता है । समत्व के हेतु प्रयास करना ही जीवन का सार-तत्त्व है । गीता को योगशास्त्र कहा गया है । योग शब्द युज् धातु से बना है, युज् धातु दो अर्थों में आता है। उसका एक अर्थ है जोड़ना, संयोजित करना और दूसरा अर्थ है संतुलित करना, मनःस्थिरता । गीता दोनों अर्थों में उसे स्वीकार करती है। पहले अर्थ में जो जोड़ता है, वह योग है अथवा जिसके द्वारा जुड़ा जाता है, या जो जुड़ता है वह योग है, अर्थात् जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है वह योग है। दूसरे अर्थ में योग वह अवस्था है जिसमें मनःस्थिरता होती है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में योग का अर्थ है अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को एक जगह इकट्ठा करना, उन्हें संतुलित करना और बढ़ाना । गीता सर्वांगपूर्ण योग-शास्त्र प्रस्तुत करती है। लेकिन प्रश्न उठता है कि गीता का यह योग क्या है ? गीता योग शब्द का प्रयोग कभी ज्ञान के साथ, कभी कर्म के साथ और कभी भक्ति अथवा ध्यान के अर्थ में करती है । अत: यह निश्चय कर पाना अत्यन्त कठिन है कि गीता में योग का कौनसा रूप मान्य है। यदि गीता एक योग-शास्त्र है तो वह क्या ज्ञानयोग का शास्त्र है या कर्मयोग का शास्त्र है अथवा भक्तियोग का शास्त्र है ? यह विवाद का विषय रहा है । आचार्य शंकर के अनुसार गीता ज्ञानयोग का प्रतिपादन करती है । तिलक उसे कर्मयोग का शास्त्र कहते हैं । वे लिखते हैं कि यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता में योग शब्द प्रवृत्ति-मार्ग अर्थात् कर्मयोग के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है । श्री रामानुजाचार्य, श्री निम्बार्क और श्री वल्ल्भाचार्य १. युज्यते एतदिति योगः, युज्यते अनेन इति योगः, युज्येत तस्मिन् इति योगः । २. योगसूत्र, १/२ ३. भगवद्गीता (रा.), पृ. ५५ ४. गीता (शां.), २/११ ५. गीतारहस्य, पृ. ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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