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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि ६. भगवद्गीता में समत्वयोग समत्व की साधना सम्पूर्ण आचार-दर्शन का सार हैं । समता मानव जीवन की महान साधना एवं अनुपम उपलब्धि है । यही धर्म है यही सुख और शान्ति का मूल है तथा इसी से निर्वाण की प्राप्ति होती है । गीता में कहा है - "जिनके मन में समता स्थित है उन्होंने तो इसी जीवन में संसार को जीत लिया ।"१
. लेकिन इस समत्व की उपलब्धि कैसे हो सकती है यह विचारणीय है । सर्वप्रथम तो जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन समत्व की उपलब्धि के लिए त्रिविध साधना पथ का प्रतिपादन करते हैं । चेतना के ज्ञान, भाव और संकल्प पक्ष को समत्व से युक्त या सम्यक् बनाने के हेतु जहाँ जैन दर्शन सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक् चारित्र का प्रतिपादन करता है वहीं बौद्ध दर्शन प्रज्ञा, शील और समाधि का और गीता ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का प्रतिपादन करती है ।
- अपने सुख-दुःख के समान दूसरे के सुख-दुःख का भी अनुभव करना, मानव-जीवन की परम श्रेष्ठ अनुभूति है। कृष्ण ने कहा था - हे अर्जुन ! मझे वह योगी परम श्रेष्ठ लगता है जो विश्व के समस्त प्राणियों के सुख-दुःख को अपने जैसा अनुभव करता है : -
"आत्मौपम्पेन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः । फॉयड लिखते हैं कि चैतसिक जीवन और सम्भवतया स्नायविक जीवन की भी प्रमुख प्रवृत्ति है - आन्तरिक उद्दीपकों के तनाव को समाप्त करना एवं साम्यावस्था को बनाये रखने के लिये सदैव प्रयासशील रहना । एक लघु कीट भी अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयास करता
१. इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । २. श्रीमद् भगवद्गीता ६-३२ । ३. Beyond the pleasure Principle-5, Freud, उद्धृत-अध्यात्मयोग और
चित्त-विकलन, पृ. २४६.
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