________________
समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि समझकर मेरा आचरण हो' । समत्व का अर्थ रागद्वेष का प्रहाण या राग-द्वेष की शून्यता करने पर भी उसका बौद्ध विचारणा में समत्वयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है । उदान में कहा गया है कि राग-द्वेष और मोह का क्षय होने से निर्वाण प्राप्त होता है । बौद्ध-दर्शन में वर्णित चार ब्रह्मविहार अथवा भावनाओं में भी समत्व-योग का चिन्तन परिलक्षित होता है । मैत्री, करुणा
और मुदिता(प्रमोद) की भावनाओं का मुख्य आधार आत्मवत् दृष्टि है इसी प्रकार माध्यस्थ भावना या उपेक्षा के लिए सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, लोहकांचन में समभाव का होना आवश्यक है । वस्तुतः बौद्ध विचारणा जिस माध्यस्थ वृत्ति पर बल देती है, वह समत्वयोग ही है ।
___ इस संदर्भ में एक वृत्त का स्मरण हो आता है। आनन्द बुद्धदेव के प्रतिभा-सम्पन्न शिष्य थे । बुद्धजी की साधना समता के सोपान पर चढ़ चुकी थी। वे परम बुद्ध हो गए थे, बात तब की है ।
सत्त्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषुकृपा परत्वं माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदाममात्मा विदधातु देवः । .
बुद्धजी के जीवन में यह भाव चरितार्थ हो गया था । ऐसी अवस्था में उन्होने धर्म-चक्र चलाना प्रारम्भ किया और लोक-हित में धर्म देशना देना प्रारम्भ कर दिया था। उनकी कीर्ति कौमुदी चारों और विकीर्ण होने लगी थी। अनेक विधर्मी उनसे द्वेष रखने लगे थे । संयोग से एक विरोधी व्यक्ति उनके पास आया और क्रोधाग्नि में धधकते हुए उसने प्रवेश किया और बुद्धजी के ऊपर थूक दिया । वह बुरी तरह से काँप रहा था । बुद्धदेव ने उसे त्वरा से पोंछ डाला और उससे पूछने लगे और कुछ कहना है आपको?' यह सुनकर आनन्द क्रोध से भर गए लेकिन वह क्रोधी-कापुरुष वहाँ से भाग गया । आनन्द ने गुरुदेव से पूछा, "भगवन् दण्ड देने की अपेक्षा उसके थूक को आपने त्वरा से पोंछ डाला और उससे आत्मीयतापूर्वक पूछने लगे और कुछ कहना है आपको ।' यह भी कोई बात हुई।"
बुद्धदेव ने आनन्द से कहा, "तुम नाहक व्यथित होते हो भाई ! क्रोध १. सुत्तनिपात, ३।३७१७ २. उदान, ८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org