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बौद्ध धर्म में समत्व-योग
२५ कामना करने वाला परलोक में पहँच कर सुख पाता है। बौद्ध साधना में भी समता को मंगलमय धर्म माना गया है ।
बौद्ध आचार-दर्शन में साधना का जो अष्टांगिक मार्ग है उसमें प्रत्येक साधन पक्ष का सम या सम्यक् होना आवश्यक है । बौद्ध-दर्शन में समत्व प्रत्येक साधन- पक्ष का अनिवार्य अंग है । .
भगवान् बुद्ध ने कहा है, "जिन्होंने धर्मों को ठीक प्रकार से जान लिया है, जो किसी मत, पक्ष या वाद में नहीं हैं, वे सम्बुद्ध हैं, समद्रष्टा हैं
और विषम स्थिति में भी उनका आचरण सम रहता है। बुद्धि, दृष्टि और आचरण के साथ लगा हुआ सम् प्रत्यय बौद्ध-दर्शन में समत्वयोग का प्रतीक है जो बुद्धि, मन और आचरण तीनों को सम बनाने का निर्देश देता है । संयुक्तनिकाय में कहा है, 'आर्यों का मार्ग सम है, आर्य विषमस्थिति में भी सम का आचरण करते हैं ।२ धम्मपद में बुद्ध कहते हैं, जो समत्व-बुद्धि से आचरण करता है तथा जिसकी वासनाएँ शान्त हो गयी हैं - 'जो जितेन्द्रिय है, संयम एवं ब्रह्मचर्य का पालन करता है, सभी प्राणियों के प्रति दण्ड का त्याग कर चुका है अर्थात् सभी के प्रति मैत्रीभाव रखता है, किसी को कष्ट नहीं देता है, ऐसा व्यक्ति चाहे वह आभूषणों को धारण करने वाला गृहस्थ ही क्यों न हो, वस्तुतः श्रमण है, भिक्षुक है । जैन- विचारणा में 'सम' का अर्थ कषायों का उपशम है । इस अर्थ में भी बौद्ध विचारणा समत्वयोग का समर्थन करती है। मज्झिमनिकाय में कहा गया है - 'राग-द्वेष एवं मोह का उपशम ही परम आर्य-उपशम है। बौद्ध परम्परा में भी जैन परम्परा के समान ही यह स्वीकार किया गया है कि समता का आचरण करने वाला ही श्रमण है। समत्व का अर्थ आत्मवत् दृष्टि स्वीकार करने पर भी बौद्ध विचारणा में उसका स्थान निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है । सुत्तनिपात में कहा गया है कि 'जैसा मैं हूँ वैसे ही जगत् के सभी प्राणी हैं, इसलिए सभी प्राणियों को अपने समान
१. संयुक्तनिकाय ११८ २. संयुक्तनिकाय ११२६ ३. धम्मपद, १४२ ४. मज्झिमनिकाय, ३४०१२ ५. धम्मपद ३८८ तुलना - उत्तराध्ययन, २५/३२.
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